Tuesday 22 March 2011

परम ऊर्जाः चरम विनाश


परमाणु आयोग की योजना इस अत्यंत जहरीले कचरे को कांच में बदल कर एक ही जगह स्थिर कर देने की है। इस कांच बने कचरे को विशेष प्रकार के शीतगृह में 20 साल तक रखा जाएगा। फिर अंत में उसे किसी ऐसी जगह रखना होगा जहां पानी, भूचाल, युद्ध या तोड़-फोड़ की कोई भी घटना हजारों साल तक उसे छेड़ न सके।परमाणु समझौते को लेकर देश में चल रही बहस में ‘बिजली और बम’ की चिंता प्रमुख है। कहा जा रहा है कि अमेरिका के साथ हुए समझौते ने हमारे लिए फिर से परमाणु बिजली बनाने का दरवाजा खोल कर हमारा बम बनाने का रास्ता बंद कर दिया है। लेकिन देश में कुछ अपवाद छोड़ दें तो किसी ने भी परमाणु बिजली पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है। आज दो-चार पीढ़ियों को कोयले के मुकाबले बेहद साफ सुथरी बिजली, प्रकाश देने के आश्वासन पर यह आने
वाली सैकड़ों पीढ़ियों को भयानक अंधकार में धकेल देगी। अभी तो हम प्लास्टिक का कचरा भी ठिकाने नहीं लगा पाए हैं, परमाणु बिजली के भयानक कचरे को भला कैसे संभाल पाएगें। आज से कोई 21 वर्ष पहले लिखा यह लेख आंकड़ों के हिसाब से पुराना, अधूरा भले ही हो, परमाणु ऊर्जा के खतरों पर एकदम नया प्रकाश डालता है।सन् 1945 में श्री होमी भाभा ने देश के लिए ‘असीम’ परमाणु ऊर्जा की संभावना का संकेत दिया था। तभी से इस संभावना को सच करने का सपना शुरू हुआ। आज देश में कोई अरबों रुपयों का परमाणु साम्राज्य फैला हुआ है, जिसमें यूरेनियम की खदान, ईंधन निर्माण के कारखाने, भारी पानी संयंत्र, परमाणु बिजली घर और काम आ चुके ईंधन को फिर से उपचारित करने के संयंत्र आदि शामिल हैं। देश के पांचवें परमाणु रिएक्टर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था कि, “कुछ राष्ट्र हमें प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में मजबूत नहीं बनने देना चाहते थे... पर यह सफलता हमारे स्वावलंबी होने के संकल्प का प्रमाण है।” मद्रास एटमिक पावर प्रोजेक्ट की उस पहली इकाई के 90 प्रतिशत कलपुर्जे देशी बताए गए थे। परमाणु ऊर्जा आयोग एक ऐसा सरकारी संगठन है, जिसे धन की कमी कभी नहीं पड़ी। हर एक पंचवर्षीय योजना में ऊर्जा विभाग के हिस्से का 2 से 5 प्रतिशत तक इस आयोग को जाता रहा है। केंद्र सरकार के सालाना बजट में ऐसे शोध और विकास कार्य के लिए रखी जाने वाली कुल राशि का भी कोई 15 से 25 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा को दिया जाता है। परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को बल पहुंचाने वाले अनेक सहायक संगठन देश भर में फैले हुए हैं। सबसे पुराना और अत्यंत गौरवशाली माना गया परमाणु संस्थान ट्रांबे का भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र है। यह देश में हल्के और भारी पानी रिएक्टरों के शोध का संस्थान है। यहां से अन्य कोई शोध-रिएक्टरों का संचालन भी होता है। देश का दूसरा परमाणु अनुसंधान केंद्र मद्रास के पास कलपक्कम का ‘रिएक्टर रिसर्च सेंटर’ है, जिसने मुख्य रूप से फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है। यूरेनियम का खनन बिहार के सिंहभूम के पास जादूगोड़ा में भारतीय यूरेनियम निगम करता है। खदान और उसकी सहायक मिलों की क्षमता रोजाना 1,000 टन यूरेनियम को उपचारित करने की है। निगम नखापहाड़ और तुरमडीह में दो और खदानें जल्दी ही शुरू करने की तैयारी कर रहा है। ये दोनों जमशेदपुर के पास हैं। इन पर कोई 100 करोड़ रुपए लगाने वाले हैं। इनसे नए परमाणु बिजली घरों के लिए ईंधन की आपूर्ति हो सकेगी। खदान से निकले यूरेनियम को हैदराबाद के पास बने परमाणु ईंधन समवाय को भेजा जाता है, जहां कोटा और कलपक्कम के परमाणु रिएक्टरों के लिए ईंधन की छड़ें बनाने के लिए उसे तोड़कर टिकियां बनाई जाती हैं और फिर उन्हें जिर्कोलॉय ट्यूबों में भरा जाता है। जिर्कोलॉय का निर्माण केरल से मंगाए गए जिरकोनियम रेत से किया जाता है। तारापुर के हल्के पानी के रिएक्टरों के लिए परिष्कृत यूरेनियम बाहर से आता है और यहां उसे तोड़ा जाता है। तारापुर के रिएक्टरों को छोड़कर बाकी सभी कार्यरत और निर्माणाधीन रिएक्टर ‘केंडु’ (केनेडियन ड्यूटेरियम टाईप) नमूने के हैं। ये भारी पानी का उपयोग करते हैं। इनमें खासी पूंजी लगती है। फिर भी परमाणु ऊर्जा आयोग ने केंडु रिएक्टर ही पसंद किए हैं। उसमें प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में काम आता है और इसका निर्माण देश में ही किया जा सकता है। इससे विदेशों से ईंधन मांगने की झंझट से छुटकारा मिल सकता है और उस अंतर्राष्ट्रीय दबाव से भी मुक्ति मिल सकती है, जिसका सामना तारापुर के परिष्कृत यूरेनियम ईंधन के मामले में करना पड़ा है। लेकिन यह उपाय तभी सफल होगा जब देश पर्याप्त भारी पानी तैयार कर ले। आज तीन जगह-नांगल (14 टन), वड़ोदरा (67 टन) और तूतिकोरिन (71 टन) में भारी पानी संयंत्र हैं, जिनकी कुल स्थापित क्षमता 150 टन सालाना की है। कोटा में (100 टन) औ तलसचर (62 टन) में दो और संयंत्र लगाने की तैयारी हो रही है। इन पांच संयंत्रों पर देश ने 220 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। थाल (110 टन) तथा मनुगुरु (185 टन) में दो और बड़े संयंत्र तैयार हो रहे हैं, जिन पर क्रमशः 188 करोड़ और 422 करोड़ रुपए खर्च होंगे। ऐसा ही एक तीसरा संयंत्र हजीरा में भी स्थापित करने की बात सोची जा रही है। इस तरह देश के परमाणु बिजली कार्यक्रम का मूल आधार भारी पानी बनता जा रहा है। कोटा के संयंत्र के सिवाय बाकी सभी संयंत्र विदेशी ठेकेदारों की मदद से बने हैं। नांगल का निर्माण पश्चिम जर्मनी के ठेकेदारों ने किया था। वड़ोदरा और तुतिकोरिन के संयंत्र स्विट्जरलैंड की एक तथा फ्रांस की दो कंपनियों के मिले-जुले दल ‘गेलप्रा’ ने तैयार किए थे। वड़ोदरा, तूतिकोरिन और तलचर के संयंत्र अमोनिया-हाइड्रोजन की अदला-बदली वाली प्रक्रिया से और आगे-पीछे रासायनिक खाद कारखानों के साथ मिल कर काम करते हैं। इस प्रक्रिया से काम करने वाला संयंत्र दुनिया में सिर्फ एक और है। यह फ्रांस के माझिंगरबे नामक स्थान में है। उसका निर्माण भी गेलप्रा ने किया था। उसने 1968 से बस 1972 तक ही काम किया। इस प्रकार तूतिकोरिन और तलचर के संयंत्र एक विवादास्पद पद्धति से बनाए गए हैं। दुनिया का अधिकांश भारी पानी अमेरिका और केनडा में हाइड्रोजन सल्फाइड/पानी की अदला-बदली वाली प्रक्रिया से तैयार होता है। पर अमेरिका और केनडा उसे बनाने का तरीका भारत को देना नहीं चाहते थे। इसलिए देश के इंजीनियरों को उस प्रक्रिया की रूपरेखा खुद ही बना लेनी पड़ी। अग्रगामी परियोजना बनाकर छोटी मात्रा में उसके निर्माण का तजुर्बा लिए बगैर ही कोटा में 100 टन क्षमता का संयंत्र बना लिया गया। नांगल के बहुत ही छोटे-से संयंत्र को छोड़कर भारी पानी के बाकी सभी संयंत्र संकट में है। डिजाइन में गलती रह जाने के कारण वड़ोदरा के संयंत्र में 1977 में परीक्षण के समय विस्फोट हो गया था और उसे फिर 1981 तक खाली रखना पड़ा। फिलहाल संयंत्र ठीक से काम कर रहा है। लेकिन क्षमता का आधे से कम ही काम हो रहा है। कोटा के संयंत्र में व्यावसायिक स्तर पर काम अभी शुरू हुए चार वर्ष ही हुए हैं, फिर भी समस्याएं आने लगी हैं। तलचर के संयंत्र में दो साल की देरी की गई क्योंकि उसमें दो एक्सचेंज टावर नहीं थे। बताया जाता है कि 1975 में पश्चिम जर्मनी से जहाज द्वारा लाते समय पुर्तगाल के पास समुद्र में वे कहीं खो गए। 66 करोड़ रुपए के इस संयंत्र का निर्माण 1972 में शुरू हुआ था। तूतिकोरिन के संयंत्र ने 1978 और 1979 में कुछ हफ्ते ही काम किया, फिर तकनीकी खराबी तथा श्रमिकों के झगड़े के कारण बंद हो गया। आयोग के अनुसार 1983-84 में उसने एक तिहाई क्षमता तक काम किया और अब बिल्कुल अच्छा काम कर रहा है। भारी पानी के इन चार बड़े संयंत्रों की कुल क्षमता सालाना 301.2 टन की होते हुए भी इसने सालाना 14 टन क्षमता के छोटे-से नांगल संयंत्र से भी कम काम किया। परमाणु बिजली संयंत्रों से पैदा होने वाला भयानक जहरीला रेडियमधर्मी कचरा परमाणु उद्योग के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। उस कचरे को न केवल प्लूटोनियम से अलग करते समय बेहद सावधानी के साथ संभालना पड़ता है, बल्कि हजारों साल तक उसके भंडारण का इंतजाम भी करना पड़ता है। परमाणु बिजली संयंत्रों से पैदा होने वाला भयानक जहरीला रेडियमधर्मी कचरा परमाणु उद्योग के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बना हुआ है। उस कचरे को न केवल प्लूटोनियम से अलग करते समय बेहद सावधानी के साथ संभालना पड़ता है, बल्कि हजारों साल तक उसके भंडारण का इंतजाम भी करना पड़ता है। अनेक लोगों का मानना है कि इस समस्या का कोई भी समाधान नहीं है। आयोग की योजना कचरे के उपचार वाले संयंत्रों को परमाणु बिजली घरों के पास ही बनाने की है ताकि इस खतरनाक चीज को दूर-दूर तक ले जाने का काम कम ही हो सके। एक बार प्लूटोनियम को अलग कर लेने के बाद परमाणु आयोग की योजना इस अत्यंत जहरीले कचरे को कांच में बदल कर एक ही जगह स्थिर कर देने की है। इस कांच बने कचरे को विशेष प्रकार के शीतगृह में 20 साल तक रखा जाएगा। फिर अंत में उसे किसी ऐसी जगह रखना होगा जहां पानी, भूचाल, युद्ध या तोड़-फोड़ की कोई भी घटना हजारों साल तक उसे छेड़ न सके। पर ऐसी जगह मिलना मुश्किल है। हिमालय, सिंधु-गंगा के कछार, थार रेगिस्तान और दक्षिणी पठार आदि भूजल की अधिकता या भूचाल की संभावना जैसे कारणों के आधार पर रद्द किए जा चुके हैं। लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग के वैज्ञानिक मानते हैं कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र और उससे लगे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के कुछ जिलों का कंकरीला पठार इसके लिए उपयोगी हो सकता है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के इलाकों की भी जांच हो रही है। बंगलूर के पास कोलार की खदान के काम में न लाए गए हिस्सों में एक प्रायोगिक शोध केंद्र भी स्थापित किया गया है। इस कचरे के स्थायी निपटान के लिए एक भंडार घर तैयार करने की बात भी सोची जा रही है। निरापद कोई जगह मिल भी गई तो जरा सोचिए कि वहां हजारों साल तक उसकी सुरक्षा करने के लिए देश को किस तरह के राजनैतिक, सैनिक ढांचे की जरूरत पड़ेगी! क्या ढांचा हमारे लोकतंत्र में निभ पाएगा?
फिर भी अगर देश की अगली शताब्दी में परमाणु बिजली की पूरी आवश्यकता का एक समुचित हिस्सा भी ठीक से उत्पादन करना है, जो दसियों हजार मेगावाट होगा, तो गैर-प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन वाला पद्धति को अपनाना ही होगा।
source: Author: अनिल अग्रवाल और प्रफुल्ल बिदवई सितम्बर-अक्टूबर 2008, गांधी मार्ग

..................................................................................................................................
इस प्रकार दूसरे चरण में परमाणु ऊर्जा आयोग की योजना प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन वाले रिएक्टरों से निकलने वाले काम आ चुके ईंधन का पुनरुपचार करके, उससे प्राप्त प्लूटोनियम के ईंधन से चलने वाले फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों को स्थापित करने की है। दुनिया में कुछ ही देशों में फास्ट ब्रीडर रिएक्टर हैं। कई विशेषज्ञों का मत है कि यह तरीका न तो सुरक्षित है, न आर्थिक दृष्टि से किफायती ही। लेकिन हमारा परमाणु ऊर्जा आयोग इतना महत्वाकांक्षी है कि वह इस दूसरे चरण को ही सोपान बनाकर तीसरे चरण में प्रवेश करने की योजना बना रहा है। इसमें बड़े पैमाने पर थोरियम ईंधन से चलने वाले फास्टर ब्रीडरों की स्थापना की जाएगी। दूसरे चरण के प्लूटोनियम ईंधन वाले रिएक्टर न केवल बिजली पैदा करेंगे बल्कि थोरियम को यूरेनियम-233 में बदल देंगे। थोरियम सीधे ईंधन का काम नहीं दे सकता लेकिन यू-233 में बदल कर वह रिएक्टर का ईंधन बनेगा। अभी तक किसी भी देश ने यू-233 ईंधन वाले फास्टर ब्रीडर की स्थापना नहीं की है। इसलिए यह ऐसा काम है जिसे अपने ही दम करना होगा। लेकिन केरल और बिहार में थोरियम का विशाल भंडार है। परमाणु ऊर्जा आयोग को विश्वास है कि एक बार इस चरण तक हम पहुंच जाएं तो सैद्धांतिक रूप से देश परमाणु बिजली के मामले में मालामाल हो जाएगा। केनडा ने भारत को भारी पानी देने का वादा किया था, पर 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट किए जाने के बाद वह अपने वादे से पीछे हट गया। उसने परमाणु संबंधी सहायता देना बंद कर दिया। इस कारण कोटा का दूसरा रिएक्टर बनकर तैयार होने के बाद भी महीनों तक बंद पड़ा रहा। आखिर भारी पानी रूस से आया। पर उसने केनडा से भी ज्यादा सुरक्षात्मक उपायों पर जोर दिया। मद्रास की पहली इकाई का काम शुरू होने में भी कई महीनों की देर हुई क्योंकि भारी पानी कम था इनमें से हरेक रिएक्टर में काम शुरू करने के लिए ही लगभग 250 टन भारी पानी लगता है। परमाणु बिजली घरों का काम बड़ा ढीला-ढाला है- खासकर राजस्थान का। 1974-75 से 1979-80 तक के छह साल के भीतर संयंत्र का काम उसकी क्षमता का 40 प्रतिशत से भी कम रहा। मार्च 1982 में, ढक्कन के सिरे में दरार दिखाई देने पर संयंत्र को बंद ही करना पड़ा। अखबारों ने लिखा कि संयंत्र हमेशा के लिए बंद होने वाला है। लेकिन अधिकारियों ने इसका खंडन किया। उसकी समस्याओं की जांच करने के लिए नियुक्त एन.बी.प्रसाद समिति की रिपोर्ट प्रकाशित ही नहीं की गई। परमाणु ऊर्जा आयोग का कहना है कि यह दौर सीखने का था। इसलिए परियोजनाओं में देरी और भूल-चूक अनिवार्य थी। पर अब यह दौर खत्म हो गया है। इसके सबूत के तौर पर बताया जाता है कि मद्रास 1 में व्यावसायिक स्तर पर काम शुरू होने के छह महीने के भीतर 65 प्रतिशत क्षमता से काम होने लगा है और तुतिकोरिन संयंत्र में भारी पानी का उत्पादन होने लगा है। भावी परमाणु बिजली घरों के डिजाइन में कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश अभी से देख ली गई है, इसलिए नए बिजली घर अब तेजी से खड़े किए जा सकेंगे।
लेकिन इस पर सबको विश्वास नहीं हो रहा है। भूतपूर्व ऊर्जा-मंत्री और देश की दीर्घकालीन ऊर्जानीति की रूपरेखा बनाने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा गठित ऊर्जा सलाहकार समिति के अध्यक्ष के.सी. पंत ने परमाणु ऊर्जा आयोग और उसके लक्ष्यांकों के बारे में भी भारी शंकाएं व्यक्त की थीं। श्री पंत खासकर भारी पानी के उत्पादन की खामियों को लेकर चिंतित थे और उनका मानना है कि आयोग भारी पानी प्रौद्योगिकी में अपनी क्षमता साबित नहीं कर सकेगा। लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग इतना शक्तिशाली है कि आज तो किसी की शंका-अशंका का या टीका-टिप्पणी का उस पर कोई असर नहीं होता दिखता। वह अबाध गति से बढ़ रहा है। उसके बोझिल लक्ष्य ही भविष्य में कभी उसके पांव थका दें तो अलग बात है। परमाणु विखंडन के द्वारा भरोसेमंद, स्वच्छ, सुरक्षित और सस्ती बिजली को असीम प्रमाण में पैदा करने का सपना, सपना ही रहने वाला है। दावे और वायदे चाहे जो हों वास्तविकता यही है कि पिछला दौर संकट का रहा है। परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा शुरू की गई हरेक परियोजना पर्यावरण के लिए बेहद भारी पड़ रही है। हरेक परियोजना का लक्ष्यांक भ्रामक ही साबित हुआ। हरेक का मूल आकार छिन्न-विच्छिन हो गया और उसका खर्च भी मूल बजट से कई गुना ज्यादा पाया गया।
लेकिन परमाणु ऊर्जा आयोग इससे बिलकुल इनकार करता है। उसकी नजरों में ये समस्याएं मामूली हैं, अस्थायी हैं और इन्हें दूर करना कठिन नहीं है। पर इन मामूली व अस्थायी समस्याओं को दूर तो किया नहीं जा सका है। देश के परमाणु कार्यक्रम की मुश्किलों को समझने के लिए तारापुर के बिजलीघर को जरा टटोलें।
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुख्यपृष्ठ पर 9 मई 1983 को एक खबर छपी थी कि तारापुर परमाणु बिजलीघर के कर्मचारी रेडियमधर्मिता के शिकार हो गए हैं, उन पर मान्य प्रमाण से अधिक असर हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया था कि तारापुर संयंत्र ने रेडियमधर्मी प्रदूषण में कई विश्व रेकार्ड तोड़े हैं और 300 से ज्यादा लोगों में इस प्रदूषण का असर 5 रेम (विकिरण के प्रभाव को नापने वाली इकाई) की सीमा से ज्यादा मात्रा में पाया गया है। रेम विकिरण की मात्रा, शरीर पर उसके दुष्प्रभाव को नापने की ईकाई है। रेडियम एब्सारशन-डोज या रेम एक वर्ष में 4 रेम से ज्यादा नहीं होना चाहिए। 12 मई को आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष श्री सेठना ने एक पत्रकार सम्मेलन बुलाया। उन्होंने रिपोर्ट के प्रमुख मुद्दों से या उसमें बताए गए विकिरण की खास तफसीलों से इनकार तो नहीं किया, लेकिन बताया कि तारपुर संयंत्र के कर्मचारियों पर गामा रेडिएशन (विकिरण) का असर जरूर है, पर इससे कोई खतरा नहीं है। निस्संदेह तारापुर देश का सर्वोत्तम परमाणु संयंत्र है। तारापुर संयंत्र परमाणु बिजलीघरों में मुकुटमणि माना जाता है। यह अन्य दो-राजस्थान के कोटा परमाणु बिजलीघर और मद्रास परमाणु बिजलीघर से आधी से भी कम लागत पर बिजली तैयार कर रहा है। हालांकि तारापुर संयंत्र की क्षमता का उपयोग भी कभी 50 प्रतिशत से आगे बढ़ा नहीं है, फिर भी उसमें लगभग लगातार बिजली का उत्पादन हो रहा है। राजस्थान में, सौम्यतम शब्दों में कहें तो, उत्पादन नियमित नहीं होता है! लेकिन हमारा यह ‘मुकुटमणि’ काम के यानी बिजली उत्पादन के लिहाज से दुनिया में सबसे ज्यादा निकम्मा माना गया है। इसे संसार का सबसे ज्यादा प्रदूषित परमाणु बिजलीघर माना जाता है। अन्य देशों में इसी डिजाइन के सभी संयंत्र बंद हो चुके हैं। इसमें प्रति इकाई उत्पादन क्षमता के हिसाब से उन संयंत्रों से 25 से 45 प्रतिशत तक कम बिजली पैदा होती रही। इसका प्रति यूनिट उत्पादन खर्च (रुपयों में) उनकी अपेक्षा कहीं ज्यादा बैठता था। तारापुर की एक और विशेषता यह है कि वह सबसे छोटा है और इसीलिए सबसे ज्यादा महंगा रिएक्टर है। प्रति यूनिट स्थापित क्षमता के हिसाब से इतना महंगा रिएक्टर अमेरिका ने दुनिया के किसी भी अन्य देश के लिए न तो बनाया, न बेचा है। अन्य देशों में टिकाए गए ऐसे रिएक्टरों में से सबसे ज्यादा खराब संचालन तारापुर का ही रहा है। वह अपने कर्मचारियों से-वाटेज और ऊर्जा निर्माण दोनों दृष्टियों से- जो कुछ वसूल करता है, कुल मानवीय रेम के हिसाब से नापने पर वह दुनिया में सबसे ज्यादा बैठता है। इस प्रकार तारापुर पर कुछ को गर्व भी हो सकता है और बहुतों को शर्म भी आ सकती है। अपना माल खपाने के लिए उतारू पश्चिमी यूरोप के परमाणु उद्योग के लिए तारापुर एक वरदान बन सकता है। एक दस्तावेज के अनुसार पश्चिम-जर्मनी की कंपनियां तारापुर की ही श्रेणी के रद्द किए गए गुंड्रियोर्मीजिन नामक रिएक्टर की घटिया तकनीक और कल-पुर्जे परमाणु ऊर्जा विभाग को बेचने के लिए उधार बैठी हैं। फ्रांस की कंपनियां भी परमाणु निर्यात की संभावनाओं की खोज में लगी हुई हैं। परमाणु बिजली के समर्थक हमेशा यही कहते रहे हैं कि परमाणु बिजलीघर से डरने की कोई बात नहीं है। वे तो बिलकुल निरापद हैं। एक लेख में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष कहते हैं: ‘जब से मोटर कार आई है, तब से उसने संसार के 2.5 करोड़ लोगों की जान ली है। लेकिन परमाणु उद्योग के शुरू होने के बाद संसार भर में विकिरण के कारण मौत होने की एक घटना नहीं हुई। यह बात सही नहीं है। अगर मोटरगाड़ियां खतरनाक हैं तो उसका अर्थ यह नहीं कि परमाणु रिएक्टर खतरनाक नहीं होते। यह तो जोखिमों और विपदाओं के नतीजों से खिलवाड़ हुआ। भोपाल कांड में मरने वालों से कई गुना ज्यादा लोग सड़क पार करते हुए मरे हैं, लेकिन इससे भोपाल कांड का समर्थन तो नहीं होता। परमाणु ऊर्जा वांछनीय है या नहीं, इसकी जांच करने के लिए बिजली उत्पादन में रुपयों की लागत के अलावा मानवीय रेम की मात्रा की परख भी एक कसौटी हो सकती है। प्रति मेगावाट/साल के हिसाब से मानवीय रेम को नापकर देखा गया है कि तारापुर की ऊर्जा की मानवीय लागत दुनिया-भर में सबसे ज्यादा है। आज यहां प्रति मेगावाट क्षमता पर लगभग 100 मानवीय रेम है। लेकिन अमेरिका में मोटे तौर पर 1.2 मानवीय रेम/मेगावाट है। परमाणु उर्जा आयोग के अध्यक्ष कहते हैं: जब से मोटर कार आई है, तब से उसने संसार के 2.5 करोड़ लोगों की जान ली है। लेकिन परमाणु उद्योग के शुरू होने के बाद संसार भर में विकिरण के कारण मौत होने की एक भी घटना नहीं हुई। भोपाल कांड में मरने वालों से कई गुना ज्यादा लोग सड़क पार करते हुए मरे हैं, लेकिन इससे भोपाल कांड का समर्थन तो नहीं होता। तारापुर की डिजाइन बना था सन् 60 में बिजलीघर का काम भी उसी समय चालू हो गया था। उसके कुछ साल बाद दुनिया के परमाणु उद्योग में सुधार और परिवर्तन के दो बड़े दौर आए। एक तो 1970 के आसपास और दूसरा अमेरिका में थ्री माईल आइलैंड नामक एक बिजलीघर की दुर्घटना के बाद। नए परिवर्तनों ने अमेरिका और उत्तरी यूरोप में सुरक्षा व्यवस्था तथा जांच के स्तर को सुधारने के लिए मजबूर किया। इस हिसाब से तो किसी भी दूसरे देश में तारापुर संयंत्र एकदम बंद किर दिया गया होता। ऐसे कुछ रिएक्टरों को बंद किया भी गया- हालांकि वे तारापुर की तुलना में कम हानिकारक थे। तारापुर संयंत्र से बिजली तो जो कुछ मिलेगी सो ठीक ही है, पर न जाने कितने लोग परमाणु देवता की बेदी पर चढ़ाए जाएंगे। देश का कामधेनु बताई गई यह योजना फिलहाल तो परमाणु प्रदूषण की, विकिरण की हुंकार लगा रहे सांड की तरह बन गई है।
................................................................................................................................
भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर परमाणु ऊर्जा विभाग का एकमात्र शोध और विकास संस्थान है। वह सुरक्षा मानकों का स्रोत है, स्वास्थ्य विभाग तथा रेडियोलाजिकल संरक्षण विभाग का प्रधान कार्यालय है और परमाणु ऊर्जा विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों का ‘पालना’ है। यहीं से निकलते हैं देश के भावी परमाणु-वैज्ञानिक। पर इस संस्थान में भी अत्यधिक मात्रा में विकिरण का फैलाव मौजूद है। कोई दस साल पहले की गई आखिरी गिनती में हर साल 4 लोग 5 रेम से ज्यादा विकिरण झेल रहे थे और मानवीय रेम संचय कुल मिलाकर हजार के ऊपर पहुंच गया था। यहां विभागीय कर्मचारियों ने एक ही साल में 22.28 रेम की उच्चतम मात्रा का सेवन किया था। ये आंकड़े 12 साल से भी पहले के हैं, जो नौ साल पहले प्रकाशित हुए थे। उसके बाद तो तथ्य मिलने ही बंद हो गए। यहां टीएलडी (थर्मो-ल्यूमिलिसेंट डोसीमीटर) तथा फिल्म-बिल्लों के गायब होने, खो जाने या उन फिल्मों को नष्ट करने का सिलसिला शुरू हुआ। फिल्म के ये बिल्ले ही कर्मचारियों के विकिरण-सेवन को दर्ज करते हैं। बिल्ले में लगी फिल्म विकिरण की मात्रा दर्ज कर लेती है। जब ऐसे बिल्ले ही गायब हो जाएं तो किसी भो भला क्या मालूम पड़ेगा कि भाभा सेंटर ने कितने लोगों का स्वास्थ्य बिगाड़ा है। परमाणु ईंधन चक्र में प्लूटोनियम प्राप्त करने के लिए काम आ चुके परमाणु ईंधन के पुनरुपचार की प्रक्रिया सबसे ज्यादा खतरनाक, समस्याओं से भरी और पर्यावरण के लिए बेहद हानिकारक होती है। रिएक्टरों में काम आ चुके परमाणु ईंधन के पुनरुपचार के लिए बनाए गए किसी भी संयंत्र ने अपनी क्षमता का पांचवां भाग भी पूरा नहीं किया है। दुनिया के पांच बड़े पुनरुपचार संयंत्रों में से चार कुछ भी काम किए बिना होने वाली दुर्घटनाओं का केंद्र बन गए थे। पुनरुपचार अणुशस्त्रों के फैलाव का भी प्रमुख स्रोत रहा है। यह अणुबम बनाने के दो तरीकों में से एक है और साथ ही कम खर्चीला तथा आसान तरीका माना जाता है। दुनिया में जितने भी पुनरुपचार संयंत्र हैं, वे अक्सर इस बात के लिए बदनाम रहे हैं कि इनमें प्लूटोनियम के उत्पादन की आशंका बताई जाती है और प्रत्यक्ष उत्पादन दिखाया जाता है, वह कभी भी एक-सा नहीं रहा है। दोनों में बड़ा अंतर रहता है। जितना प्लूटोनियम असल में हाथ आना चाहिए, उसमें से अच्छा-खासा हिस्सा बीच में ही कहीं रहस्यात्मक ढंग से गायब हो जाता है। तारापुर का पुनरुपचार संयंत्र ‘प्रेफे’ भी अपवाद नहीं है। लेकिन प्लूटोनियम के पुनरुपचार के विध्वंसात्मक उपयोग के आशंकाएं भी परमाणु बिजली के कारण अंततोगत्वा होने वाली लगभग स्थायी विपत्ति की तुलना में फीकी पड़ जाती है। परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है। यह विष आज संसार में 20,000 टन तक की मात्रा में मौजूद है। इसका अधिकांश भाग बिजलीघरों के काम आ चुके ईंधन के हौजों में पड़ा है। उसे भले ही एक किस्म के कांच में बदल दें, जैसे फ्रांसिसी कंपनियां और हमारा परमाणु ऊर्जा विभाग कोशिश कर रहा है, या खास तरह के स्थायी कूड़ाघरों में जमा करें, जैसी पश्चिम जर्मनी की कोशिश है, या समुद्र के नीचे गाड़ दें, तो भी यह कचरा हमेशा के लिए भयंकर आत्मघाती मुसीबत बना रहने वाला है। परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है। अमेरिका में थ्री माईल आइलैंड की दुर्घटना के बाद नए परिवर्तनों ने अमेरिका और उत्तरी यूरोप में सुरक्षा व्यवस्था तथा जांच के स्तर को सुधारने के लिए मजबूर किया। इस हिसाब से तो किसी भी दूसरे देश में तारापुर संयंत्र एकदम बंद कर दिया गया होता। ऐसे रिएक्टरों को बंद किया भी गया- हालांकि वे तारापुर की तुलना में कम हानिकारक थे। तथाकथित कम खतरनाक कचरे (लो-लेवल वेस्ट) से उत्पन्न समस्याओं की तो कल्पना भी नहीं कर सकते। उनका स्थूल आकार ही करोड़ों घन फुट बैठता है। इस कचरे में यूरेनियम का कूड़ा, ईंधन की टूटन, हर साल रिएक्टरों से फेंका जाने वाला कीचड़ और रेडियोधर्मी विकिरण से प्रदूषित कर्मचारियों के कपड़े, जुते, दस्ताने टोपी आदि शामिल हैं। इसे गहरे खड्डे में या समुद्र में गाड़ना भी एक बड़ी आफत है। देर-सवेर यह सब मछलियों आदि के माध्यम से आहार-चक्र में दाखिल होने ही वाला है। इस कचरे के निपटारे का खर्च क्या आता होगा? अंदाज है कि परमाणु बिजली उत्पादन की लागत के अनुपात में यह खर्च 5-10 प्रतिशत से लेकर 30-60 प्रतिशत तक होगा। अमेरिका में बिजली का उपयोग करने वालों पर प्रति 1,000 मेगावाट घंटे पर एक डालर चार्ज किया जाता है और यह पैसा कचरा निपटाने के काम पर खर्च किया जाता है। वहां के पर्यावरणवादी इसे भी नाकाफी मानते हैं। हमारे देश में तो मानवीय रेम और लोगों की जान के रूप में प्रत्यक्ष कीमत अदा की जाती है। और अप्रत्यक्ष धन की कीमत साधारण करदाता की जेब से चुकाई जाती है। पुराने हो चुके परमाणु बिजलीघरों को बंद करने में भी इसी प्रकार की आर्थिक परेशानियां पैदा होती हैं। यह बंद करना शब्द गलत है क्योंकि उसका अर्थ होता है। साधारण रीति से किसी निर्जन मकान में ताला लगा देना। लेकिन दसियों साल तक काम करते रहने वाले परमाणु संयंत्रों के अनेक हिस्सों में रेडियमधर्मिता छा चुकी होती है। बंद करते समय उन्हें कंक्रीट की बहुत मोटी तह वाली एक विशाल कब्र में दफनाकर सदियों तक वायुमंडल से बचाकर रखना पड़ेगा। एक और उपाय है ‘एंटोबमेंट’ यानी संयंत्र को कंक्रीट ठूंस-ठूंस कर मुहरबंद करना और अनंत काल तक उस पर पहरा बैठाना। यह एंटोबमेंट संभव है सस्ता पड़े लेकिन पर्यावरण के लिए दीर्घकालीन कैसी समस्याएं पैदा करेगा- अभी इसका पूरा-पूरा अंदाज भी नहीं लग सकता है। कुछ चीजें ऐसी हैं, जो एक लाख वर्ष तक रेडियमधर्मी बनी ही रहेंगी। यानी कंक्रीट की उपयोगिता की अवधि उससे पहले कब की खतम हो चुकी होगी। सदियों तक लोग उसका पहरा इतनी मुस्तैदी से देते रहेंगे, यह कहा नहीं जा सकता। परमाणु बिजलीघरों से निकला अति भयानक रेडियमधर्मी कचरा अनंतकाल तक यानी जब तक यह धरती है तब तक, बिलकुल सुरक्षित रूप से जमा करके रखना होगा। है कोई राजनेता या वैज्ञानिक जो इसका दावा कर सकता है? परमाणु ऊर्जा के कट्टर से कट्टर समर्थकों में कोई भी यह नहीं कह सका है कि उस कचरे के निपटान की समस्या का हल मिल गया है। बंद करने का तीसरा उपाय परमाणु संयंत्र के टुकड़े-टुकड़े कर उसे तोड़ देना और रेडियोधर्मी चीजों को सही स्थान पर पहुंचा देना बताया जाता है। इसमें जो तकनीकी कठिनाइयां आएंगी, उन पर भी ठीक से विचार नहीं हो सका है। इस तरीके से बड़ी मात्रा में विकिरण फैल सकता है। रिएक्टर के कुछ हिस्से को पानी के भीतर विशेष हौजों में दूर-संचालित (रिमोट कंट्रोल) हथौड़े के द्वारा तोड़ना होगा। दूसरी अनेक प्रक्रियाएं कई पारियों में करनी होंगी ताकि काम करने वाले लोगों पर मान्य मात्रा से अधिक विकिरण का प्रभाव न पड़े। 1,000 मेगावाट क्षमता के परमाणु संयंत्र को दफनाने का खर्च 100 करोड़ रुपए से 1300 करोड़ रुपए तक आएगा। यों अभी दफनाने का भी कोई खास अनुभव नहीं है। यह सब अटकलबाजी ही है। अब तक तोड़ा गया सबसे बड़ा संयंत्र अमेरिका में मिन्नेसोटा स्थित 22 मेगावाट क्षमता का एल्क नदी संयंत्र है। पूरी प्रक्रिया में 2 साल और 60 लाख डालर लगे आगे जिन बिजलीघरों को दफनाना होगा, वे तो इससे 50 गुना बड़े और सैकडों गुना अधिक रेडियमधर्मी प्रदूषित संयंत्र हैं। इससे भी ज्यादा स्पष्ट चित्र शिपिंग पोर्ट संयंत्र का है। इसे तोड़ने पर 6-7 करोड़ डालर लगेंगे। थ्री माइल आइलैंड संयंत्र की सफाई के काम में भी अनेक ऐसी समस्याएं खड़ी हो गई थीं। जिनका पहले जरा भी अंदाज नहीं था। रूस के चेर्नोबिल परमाणु बिजलीघर में हुई दुर्घटना के बाद उसकी सफाई में लगे वैज्ञानिकों को इस नई समस्या की थाह ही नहीं मिल पा रही थी। बताया जा रहा है कि चेर्नोबिल की सफाई रिएक्टर की बनवाई से भी महंगी पड़ी। तब भाड़ में जाए ऐसी सफाई कह कर आप इससे हाथ नहीं झाड़ सकते। ऐसे प्रदूषित बिजलीघरों को ज्यों का त्यों छोड़ कोई देश बच नहीं सकेगा। बंद किए गए बिजलीघर से हर क्षण प्रलय की लहरों पर लहरे निकलेंगी। परमाणु बिजलीघर कचरे में यूरेनियम का कूड़ा, ईंधन की टूटन, हर साल रिएक्टरों से फेंका जाने वाला कीचड़ और रेडियोधर्मी विकिरण से प्रदूषित कर्मचारियों के कपड़े, जूते, दस्ताने, टोपी आदि शामिल हैं। इसे गहरे गड्ढे में या समुद्र में गाड़ना भी एक बड़ी आफत है। देर-सवेर यह सब मछलियों आदि के माध्यम से आहार-चक्र में दाखिल होने ही वाला है। देश में प्रौद्योगिकी के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन के लिए एक आदर्श परिस्थिति निर्माण करने के जितने भी प्रयास हुए हैं, उनमें श्री होमी भाभा की परमाणु ऊर्जा योजना शायद सबसे अधिक महत्वाकांक्षी और खर्चीली रही है। बताया गया था कि इससे 2 लाख मेगावाट परमाणु बिजली मिलेगी जो देश की समृद्धि के सारे द्वारा खोल देगी। परमाणु ऊर्जा आयोग की इस भयंकर योजना के पीछे एक लंबी विचार श्रृंखला थीः परमाणु ऊर्जा में भावी और अंतिम प्रौद्योगिकी का सार-सर्वस्व निहित है, हमारे जैसे राष्ट्र के लिए ऊर्जा के क्षेत्र में अगर कोई प्रयत्न जरूरी है तो वह विकसित राष्ट्रों की तरह ज्यादा से ज्यादा बिजली पैदा करने का ही है, और फिर परमाणु विद्युत ही एकमात्र सस्ती चीज है। एक प्रौद्योगिकी के रूप में उसकी सफलता सीधे परमाणु विज्ञान द्वारा प्रदत्त ज्ञान पर आधारित है। डिजाइन तैयार करने में, संचालन करने में, सुरक्षा में, सफाई करने में, ऐसे सभी कामों में जो भी समस्याएं आएगी, उन्हें हल कर लिया जा सकता है, और इसलिए परमाणु बिजली कार्यक्रम के लिए चाहे जितना पैसा लगे, उसे तो लगाना ही है। लेकिन इन बातों को परखा तो गया नहीं था, बस देश को उन्नत बना देने की उतावली में स्वीकार कर लिया गया है। हमारे देश में चाहे जितने प्रकार की बिजली हो, वह आखिर मुट्ठी भर शक्तिशाली वर्धमान समूह के बस की व्यावसायिक ऊर्जा का एक प्रकार है और पूरे समाज में कुल जितनी ऊर्जा काम में आती है, उसका बहुत ही छोटा-सा हिस्सा है। सारे समाज के विद्युतीकरण की, खास कर केंद्रित विद्युत उत्पादन प्रणाली द्वारा कोने-कोने तक बिजली पहुंचाने की मूल कल्पना ही सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से बिलकुल असामाजिक है। परमाणु समर्थक परमाणु बिजली पर आने वाले भारी खर्च को ऊर्जा में स्वायत्तता और स्वतंत्रता पाने की एक ऐसी कीमत बताते हैं, जो हमें चुकानी ही पड़ेगी। इसमें जो विलंब हो रहा है और दाम में जो अपार वृद्धि हो रही है, उसका कारण यह बताया जाता है कि पोखरण में अणुविस्फोट होने के बाद अमेरिका, केनडा नाखुश होकर वादों से मुकर रहे हैं और विश्व के परमाणु निर्यातकों और आपूर्तिकारों का अग्रणी लंदन क्लब भी हमारा विरोधी बन गया है। ‘धीरे-धीरे सीख लेंगे’ वाली बात में भी कोई दम नहीं है। अमेरिका तक में, जहां परमाणु ऊर्जा का खूब सारा ज्ञान मौजूद है, और पैसे की भी कोई कमी नहीं है यह धीरे-धीरे सीख लेने वाली बात चल नहीं पाई है .अमेरिका में 1976 के बाद से एक भी नए रिएक्टर के लिए अनुमति नहीं दी गई है। 1975 में 90 से भी अधिक संयंत्र रद्द कर दिए गए और जल्दी ही अमेरिका की परमाणु ऊर्जा ठंडी पड़ने जा रही है। वहां की एक प्रमुख शोध संस्था वर्ल्ड वाच इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर लेस्टर ब्राउन के शब्दों में: “अमेरिका का परमाणु बिजली उत्पादन गिरने लगेगा। तब वहां बन रहे अद्यतन आखिरी संयंत्र पूरा काम करने लगेंगे और 60 और 70 के दशकों में स्थापित पुराने संयंत्र दफनाएं जाने लगेंगे। जिस देश ने संसार को परमाणु विद्युत के युग में प्रवेश कराया, वही संसार को उससे मुक्त कराने में भी अगुवाई करने वाला है।”
परमाणु ऊर्जा पर हमने अपार धन तो गंवाया ही है, उसके साथ-साथ संसाधनों और अवसरों की भी अपार हानि हुई है। परमाणु ऊर्जा पर खर्च किए गए हजारों करोड़ रुपयों को दूसरे ऊर्जा स्रोतों पर लगाया गया होता तो नतीजा बिलकुल अलग होताः हजारों मेगावाट कोयला आधारित बिजली पैदा हो सकती थी, सूरज से चलने वाले लाखों पंप चालू हो सकते थे। हजारों हेक्टेयर जंगल खड़े होते, रोजगार के अनगिनत अवसर पैदा होते, तरह-तरह के क्षेत्रों में सामाजिक और पर्यावरणीय लाभ मिले होते।
पर यह सब नहीं हो पाया। हुआ तो कुछ और ही है। इसे अब न तो हम निगल पा रहे हैं, न थूक ही पा रहे हैं।
.............स्वर्गीय अनिल अग्रवाल देश के पर्यावरण आंदोलन के अग्रणी साथी रहे हैं। श्री प्रफुल्ल विदवई समाज को छुनें वाले विषयों को उठाते रहे हैं।

No comments:

Post a Comment