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परमाणु ऊर्जा
परमाणु ऊर्जा वह ऊर्जा है जिसे नियंत्रित (यानी, गैर-विस्फोटक) परमाणु अभिक्रिया से उत्पन्न किया जाता है. वाणिज्यिक संयंत्र वर्तमान में बिजली उत्पन्न करने के लिए परमाणु विखंडन अभिक्रिया का उपयोग करते हैं. विद्युत् उपयोगिता रिएक्टर, भाप उत्पन्नं करने के लिए पानी को गर्म करते हैं, जिसे फिर बिजली उत्पन्न करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. 2009 में, दुनिया की बिजली का 15ः परमाणु ऊर्जा से आया. इसके अलावा, परमाणु प्रणोदन का उपयोग करने 2005, परमाणु ऊर्जा ने विश्व की ऊर्जा का 6.3ः और विश्व की कुल बिजली का 15ः प्रदान किया और जिसमें फ्रांस, अमेरिका और जापान का परमाणु जनित बिजली में, एक साथ 56.5ः का योगदान रहा 2007 में, प्।म्। ने खबर दी कि विश्व में कुल 439 परमाणु ऊर्जा रिएक्टर काम कर रहे हैं, जो 31 देशों में संचालित हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका सबसे अधिक परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करता है, जिसके तहत वह विद्युत् की अपनी खपत का 19ः परमाणु ऊर्जा से प्राप्त करता हैख्४,, जबकि फ्रांस परमाणु रिएक्टरों से अपनी खपत की विद्युत ऊर्जा के सबसे उच्च प्रतिशत का उत्पादन करता है - यथा 2006यूरोपीय संघ में समग्र रूप, परमाणु ऊर्जा बिजली का 30ः प्रदान करती है. यूरोपीय संघ के देशों के बीच परमाणु ऊर्जा नीति भिन्न है, और कुछ देशों, जैसे ऑस्ट्रिया, एस्टोनिया और आयरलैंड, में कोई सक्रिय परमाणु ऊर्जा केंद्र नहीं है. इसकी तुलना में, फ्रांस में इनके ढेरों संयंत्र हैं, जिसमें से 16 बहु-इकाई केंद्र, वर्तमान में उपयोग में हैं.अमेरिका में, जबकि कोयला और गैस विद्युत उद्योग के 2013 तक $85 बीलियन मूल्य के होने का अनुमान है, परमाणु ऊर्जा जनरेटर के $18 बीलियन मूल्य के होने का पूर्वानुमान है. कई सैन्य और कुछ नागरिक जहाज (जैसे कुछ आइसब्रेकर) परमाणु समुद्री प्रणोदन का उपयोग करते हैं, परमाणु प्रणोदन का एक रूप. कुछ अंतरिक्ष विमानों को पूर्ण विकसित परमाणु रिएक्टर का उपयोग करते हुए प्रक्षेपित किया गयारू सोवियत त्व्त्ै।ज् श्रृंखला और अमेरिकी ैछ।च्-10।.
अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान, सुरक्षा सुधार को आगे बढ़ा रहा है, जैसे निष्क्रिय रूप से सुरक्षित संयंत्र, नाभिकीय संलयन का उपयोग, और प्रक्रिया ताप का अतिरिक्त उपयोग जैसे हाइड्रोजन उत्पादन (हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था के समर्थन में), समुद्री जल को नमकविहीन करना और डिस्ट्रिक्ट हीटिंग प्रणाली में इस्तेमाल करना.
,नाभिकीय संलयन
नाभिकीय संलयन अभिक्रिया अपेक्षाकृत सुरक्षित होती है और विखंडन की अपेक्षा कम रेडियोधर्मी कचरा उत्पन्न करती है. ये अभिक्रियाएं संभावित रूप से व्यवहार्य दिखाई देती हैं, हालांकि तकनीकी तौर पर काफी मुश्किल हैं और इन्हें अभी भी ऐसे पैमाने पर निर्मित किया जाना है जहां एक कार्यात्मक बिजली संयंत्र में इनका इस्तेमाल किया जा सके. संलयन ऊर्जा 1950 के बाद से, गहन सैद्धांतिक और प्रायोगिक जांच से गुजर रही है.
अंतरिक्ष में प्रयोग
विखंडन और संलयन, दोनों अंतरिक्ष प्रणोदन अनुप्रयोगों के लिए संभावनापूर्ण दिखते हैं, जो न्यून अभिक्रिया राशि के साथ उच्च अभियान वेग सृजित करते हैं. ऐसा, परमाणु अभिक्रिया के बहुत अधिक ऊर्जा घनत्व के कारण हैरू परिमाण के कुछ 7 क्रम (10,000,000 गुना) रॉकेट की वर्तमान पीढ़ी को ऊर्जा प्रदान करने वाली रासायनिक अभिक्रियाओं से अधिक ऊर्जावान. रेडियोधर्मी क्षय को अपेक्षाकृत छोटे पैमाने (कुछ ॉ) पर इस्तेमाल किया गया है, ज्यादातर अंतरिक्ष अभियानों और प्रयोगों को ऊर्जा प्रदान करने के लिए.
इतिहास
इन्हें भी देखें ।जवउपब हम एवं छनबसमंत तमदंपेेंदबम
उत्पत्ति
परमाणु भौतिकी के पिता के रूप में,, अर्नेस्ट रदरफोर्ड को 1919 में परमाणु विखंडन के लिए श्रेय दिया जाता है, इंग्लैंड में उनके दल ने नाइट्रोजन पर रेडियोधर्मी पदार्थ से प्राकृतिक रूप से निकलने वाले अल्फा कण से बमबारी की और अल्फा कण से भी अधिक ऊर्जा युक्त एक प्रोटॉन को उत्सर्जित होते देखा. 1932 में उनके दो छात्र जॉन कौक्रोफ्ट और अर्नेस्ट वाल्टन ने, जो रदरफोर्ड के दिशा-निर्देश में काम कर रहे थे, पूरी तरह कृत्रिम तरीके से परमाणु नाभिक को विखंडित करने की कोशिश की, उन्होंने लिथियम पर प्रोटॉनों की बमबारी करने के लिए एक कण त्वरक का उपयोग किया, जिससे दो हीलियम नाभिक की उत्पत्ति हुई
जेम्स चौडविक द्वारा 1932 में न्यूट्रॉन की खोज के बाद, परमाणु विखंडन को सर्वप्रथम एनरिको फर्मी ने प्रयोगात्मक रूप से 1934 में रोम में हासिल किया, जब उनके दल ने यूरेनियम पर न्यूट्रॉन से बमबारी की. 1938 में, जर्मन रसायनशास्त्री ओट्टो हान और फ्रिट्ज स्ट्रासमन, और साथ में ऑस्ट्रियाई भौतिकविद लिसे मेट्नर और मेट्नर के भतीजे ओट्टो रॉबर्ट फ्रिशख् ने न्यूट्रॉन से बमबारी किए गए यूरेनियम उत्पादों पर प्रयोग किए. उन्होंने निर्धारित किया कि अपेक्षाकृत छोटा न्यूट्रॉन, महाकाय यूरेनियम परमाणुओं के नाभिक को लगभग दो बराबर टुकड़ों में विभाजित करता है, जो एक आश्चर्यजनक परिणाम था. लियो शिलार्ड सहित जो एक अगुआ थे, अनेकों वैज्ञानिकों ने यह पाया कि अगर विखंडन अभिक्रियाएं अतिरिक्त न्यूट्रॉन छोड़ती हैं तो एक स्व-चालित परमाणु श्रृंखला अभिक्रिया फलित हो सकती है. इस बात ने कई देशों में वैज्ञानिकों को (अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, जर्मनी, और सोवियत संघ सहित) परमाणु विखंडन अनुसंधान के समर्थन के लिए अपनी सरकारों को याचिका देने के लिए प्रेरित किया.
इस खोज ने अमेरिका में, जहां फर्मी और शीलार्ड, दोनों ने प्रवास किया था, मानव निर्मित प्रथम रिएक्टर को प्रेरित किया, जो शिकागो पाइल-1 कहलाया, और जिसने 2 दिसंबर, 1942 को क्रिटिकलिटी हासिल की. यह कार्य मैनहट्टन प्रोजेक्ट का हिस्सा बन गया, जिसने हैनफोर्ड साईट (पूर्व में हैनफोर्ड शहर, वाशिंगटन) पर विशाल रिएक्टर बनाए, ताकि प्रथम परमाणु हथियारों में प्रयोग के लिए प्लूटोनियम पैदा किया जा सके, जिन्हें हिरोशिमा और नागासाकी के शहरों पर इस्तेमाल किया गया. यूरेनियम संवर्धन का एक समानांतर प्रयास भी जारी रहा.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, यह डर कि रिएक्टर अनुसंधान, परमाणु हथियारों और प्रौद्योगिकी के तीव्र प्रसार को प्रोत्साहित करेगासाँचारूटंहनम, और इस डर के साथ संयुक्त कई वैज्ञानिकोंसाँचारूॅीव की यह सोच कि यह विकास की एक लंबी यात्रा होगी, ऐसी परिस्थिति उत्पन्नं हुई जिसमें सरकार ने रिएक्टर अनुसंधान को कड़े सरकारी नियंत्रण और वर्गीकरण के तहत रखने का प्रयास किया. इसके अलावा, अधिकांशख्ूीपबी?, रिएक्टर अनुसंधान, विशुद्ध रूप से सैन्य प्रयोजनों पर केंद्रित थे. एक तत्कालख्ूीमद?, हथियार और विकास की दौड़ शुरू हो गई जब अमेरिकी सेना साँचारूॅीव ने जानकारी साझा करने और परमाणु सामग्री को नियंत्रित करने के अपने ही वैज्ञानिक समुदाय की सलाह का पालन करने से इनकार कर दिया.उद्धरण वांछित, 2006 तक, एक चक्र पूरा करते हुए बातें, वैश्विक परमाणु ऊर्जा भागीदारी के साथ वहीं पहुंची हैं (नीचे देखें).उद्धरण वांछित,
20 दिसंबर, 1951 को पहली बार एक परमाणु रिएक्टर द्वारा बिजली उत्पन्न की गई, आर्को, आइडहो के नजदीक म्ठत्-प् प्रयोगात्मक स्टेशन में, जिसने शुरुआत में 100 ॉ का उत्पादन किया (आर्को रिएक्टर ही पहला था जिसने 1955 में आंशिक मेल्टडाउन का अनुभव किया). 1952 में, राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन के लिए पाले आयोग (द प्रेसिडेंट्स मेटिरिअल्स पॉलिसी कमीशन ) की एक रिपोर्ट ने परमाणु ऊर्जा का अपेक्षाकृत निराशावादीष् मूल्यांकन किया, और ष्सौर ऊर्जा के सम्पूर्ण क्षेत्र में आक्रामक अनुसंधान की मांग की., राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहावर द्वारा दिसंबर 1953 को दिए गए भाषण ष्शांति के लिए परमाणु ने परमाणु के उपयोगी दोहन पर बल दिया, और परमाणु ऊर्जा के अंतरराष्ट्रीय प्रयोग के लिए अमेरिका को मजबूत सरकारी समर्थन के मार्ग पर आगे बढ़ाया.
प्रारंभिक वर्ष चित्ररूब्ंसकमतींसस.रचमह
यूनाइटेड किंगडम में काल्डर हॉल परमाणु ऊर्जा केंद्र, दुनिया का पहला परमाणु ऊर्जा केंद्र था जिसने व्यावसायिक मात्रा में बिजली का उत्पादन किया
शिपिंगपोर्ट, पेंसिल्वेनिया में शिपिंगपोर्ट परमाणु ऊर्जा केंद्र, संयुक्त राज्य अमेरिका में 1957 में खोला गया पहला व्यावसायिक रिएक्टर था.
27 जून, 1954 को न्ैैत् के ओबनिंस्क न्यूक्लियर पावर प्लांट, विद्युत् ग्रिड के लिए बिजली उत्पादित करने वाला दुनिया का पहला परमाणु ऊर्जा संयंत्र बना, और इसने करीब 5 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया.
बाद में 1954 में, अमेरिकी परमाणु ऊर्जा आयोग (न्.ै. ।म्ब्, अमेरिकी परमाणु नियामक आयोग और अमेरिकी ऊर्जा विभाग का अग्रदूत) के उस वक्त के अध्यक्ष, लुईस स्ट्रास ने भविष्य में बिजली के बारे में कहा कि यह ष्इतनी सस्ती होगी कि मीटर से नापने की आवश्यकता नहीं होगीष्.ख्२१, स्ट्रास, हाइड्रोजन संलयन का जिक्र कर रहे जिसे गुप्त रूप से उस वक्त शेरवुड परियोजना के हिस्से के रूप में विकसित किया जा रहा था - लेकिन स्ट्रास के बयान को परमाणु विखंडन से मिलने वाली अत्यंत सस्ती ऊर्जा के एक वादे के रूप में समझा गया. न्.ै. ।म्ब् ने कुछ महीने पहले अमेरिकी कांग्रेस में, परमाणु विखंडन के बारे में कहीं अधिक रूढ़िवादी गवाही जारी की, यह दर्शाते हुए कि लागत को नीचे लाया जा सकता है ... परंपरागत स्रोतों से मिलने वाली बिजली की लागत के बराबर ही.. महत्वपूर्ण निराशा बाद में तब पनपी जब नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों ने अत्यंत सस्ती ऊर्जा प्रदान नहीं की.
1955 में, संयुक्त राष्ट्र संघ के ष्प्रथम जिनेवा सम्मेलन उस वक्त वैज्ञानिकों और इंजीनियरों का दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा, ने प्रौद्योगिकी को और खंगालने के लिए मुलाकात की. 1957 में म्न्त्।ज्व्ड को यूरोपीय आर्थिक समुदाय (जो अब यूरोपीय संघ है) के साथ शुरू किया गया. उसी वर्ष अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (प्।म्।) का भी गठन किया गया.
सेलाफील्ड, इंग्लैंड में स्थित विश्व का पहला वाणिज्यिक परमाणु ऊर्जा केंद्र, काल्डर हॉल, को 1956 में 50 मेगावाट की आरंभिक क्षमता के साथ खोला गया (बाद में 200 मेगावाट परिचालन शुरू करने वाला अमेरिका का पहला वाणिज्यिक परमाणु जनरेटर था शिपिंगपोर्ट रिएक्टर (पेंसिल्वेनिया दिसम्बर, 1957).
परमाणु ऊर्जा को विकसित करने वाले पहले संगठनों में से एक था अमेरिकी नौसेना, जिसने इसका उपयोग पनडुब्बी और विमान वाहकों को चलाने के लिए किया. परमाणु सुरक्षा में इसका रिकार्ड दाग रहित है,ख्उद्धरण वांछित, शायद एडमिरल हैमन जी. रिकोवर की कड़ी मांगों की वजह से, जो परमाणु समुद्री प्रणोदन और साथ ही साथ शिपिंगपोर्ट रिएक्टर के प्रणेता थे (एल्विन राडोस्की अमेरिकी नौसेना के परमाणु प्रणोदन अनुभाग के मुख्य वैज्ञानिक थे और हैमन के साथ जुड़े हुए थे). अमेरिकी नौसेना ने किसी भी अन्य संस्था की तुलना में, जिसमें सोवियत नौसेनाख्उद्धरण वांछित, साँचारूक्नइपवने भी शामिल है, सार्वजनिक रूप से ज्ञात, बिना किसी प्रमुख घटना के अधिक परमाणु रिएक्टरों को संचालित किया है. पहली परमाणु संचालित पनडुब्बी, न्ैै नौटीलस को दिसंबर 1954 में समुद्र में छोड़ा गया., दो अमेरिकी परमाणु पनडुब्बी, न्ैै स्कोर्पियन और न्ैै थ्रेशर, समुद्र में खो गए. ये दोनों जहाज, प्रणाली में ऐसी खराबी के कारण खो गए जो रिएक्टर संयंत्र से संबंधित नहीं था.उद्धरण वांछित, साइटों की निगरानी की जाती है और जहाज पर रिएक्टरों से कोई ज्ञात रिसाव नहीं हुआ है.
अमेरिकी सेना के पास भी एक परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम है, जो 1954 में शुरु हुआ. थ्ज. बेल्वोइर, टं. में स्थित ैड-1 परमाणु ऊर्जा संयंत्र, अप्रैल 1957 में, वाणिज्यिक ग्रिड (टम्च्ब्व्) को विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति करने वाला न्ै का पहला ऊर्जा रिएक्टर था, शिपिंगपोर्ट से पहले .
एनरिको फर्मी और लियो शीलार्ड ने 1955 में परमाणु रिएक्टर के लिए साँचारू न्ै चंजमदज साझा किया, उस काम के लिए देर से प्रदान किया गया जो उन्होंने मैनहट्टन परियोजना के दौरान किया था.
विकास
परमाणु (ऊपर) शक्ति और सक्रिय परमाणु ऊर्जा संयंत्रों (नीचे) की संख्या के उपयोग का इतिहास.
संस्थापित परमाणु क्षमता शुरू में अपेक्षाकृत जल्दी बढ़ी, 1960 में 1 गीगावाट (ळॅ) से भी कम से लेकर 1970 के दशक के उत्तरार्ध में 100 ळॅ, और 1980 के दशक के उत्तरार्ध में 300 ळॅ. 1980 के दशक के उत्तरार्ध के बाद से, दुनिया भर में क्षमता अपेक्षाकृत धीरे-धीरे बढ़ी है, जो 2005 में 366 ळॅ तक पहुंची. 1970 और 1990 के बीच, 50 ळॅ से अधिक की क्षमता निर्माणाधीन थी (जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध और 1980 के दशक के पूर्वार्ध में 150 ळॅ के साथ चरम पर थी) - 2005 में करीब 25 ळॅ की नई क्षमता की योजना बनाई गई. जनवरी 1970 के बाद से आदेश दिए गए कुल परमाणु संयंत्रों में से दो तिहाई से अधिक को अंततः रद्द कर दिया गया., 1975 से 1980 के बीच अमेरिका में कुल 63 परमाणु यूनिट को रद्द कर दिया गया. वाशिंगटन सार्वजनिक विद्युत आपूर्ति प्रणाली परमाणु ऊर्जा संयंत्र 3 और 5 कभी पूरे नहीं किए गए. 1970 और 1980 के दशक में बढ़ती आर्थिक लागत के दौरान (विनियामक परिवर्तनों और दबाव-समूह की मुकदमेबाजी की वजह से वर्धित निर्माण अवधि के कारण)ख्२७, और जीवाश्म ईंधन की कीमतों में गिरावट ने उस वक्त के निर्माणाधीन परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अनाकर्षक बना दिया. 1980 के दशक में (अमेरिका) और 1990 के दशक में (यूरोप), सपाट भार विकास और विद्युत् उदारीकरण ने भी विशाल नई बेसलोड क्षमता के जुड़ाव को अरुचिकर बना दिया. 1973 के तेल संकट का देशों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, जैसे फ्रांस और जापान, जो बिजली उत्पादन के लिए तेल पर अत्यधिक निर्भर थे (क्रमशः 39ः और 73ः) ने परमाणु ऊर्जा में निवेश की योजना बनाई ,आज, परमाणु ऊर्जा इन देशों में क्रमशः करीब 80ः और 30ः की विद्युत् आपूर्ति करती है.
परमाणु ऊर्जा के खिलाफ आंदोलन 20वीं सदी के आखिरी तीसरे भाग में उभरा, जो संभावित परमाणु दुर्घटना के डर के साथ ही साथ दुर्घटनाओं का इतिहास, विकिरण की आशंका के साथ ही साथ सार्वजनिक विकिरण के इतिहास, परमाणु अप्रसार, और परमाणु कचरे के उत्पादन, परिवहन और संग्रहण की किसी अंतिम योजना की कमी पर आधारित था. नागरिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा पर कथित खतरा, थ्री माइल आइलैंड पर 1979 की दुर्घटना, और 1986 की चेरनोबिल आपदा ने कई देशों में नए संयंत्रों के निर्माण को रोकने में भूमिका अदा की,ख्३०, हालांकि सार्वजनिक नीति संगठन ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन का सुझाव है कि अमेरिका में नई परमाणु इकाइयों का आदेश नहीं दिया गया है, जिसकी वजह है बिजली की हलकी मांग और निर्माण में देरी और विनियामक मुद्दों के कारण परमाणु संयंत्रों की बढ़ती लागत.
थ्री माइल आइलैंड दुर्घटना के विपरीत, अधिक गंभीर चेरनोबिल दुर्घटना ने वेस्टर्न रिएक्टर को प्रभावित करने वाले नियमों को नहीं बढ़ाया क्योंकि चेरनोबिल रिएक्टर समस्याग्रस्त त्ठडज्ञ डिजाइन वाले थे जिसे सिर्फ सोवियत संघ में इस्तेमाल किया जाता था, उदाहरण के लिए ष्मजबूतष् रोकथाम बिल्डिंग की कमी.ख्३२, इनमें से कई रिएक्टर आज भी प्रयोग में हैं. हालांकि, एक नकली दुर्घटना की संभावना को कम करने के लिए, रिएक्टरों (कम संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल) और नियंत्रण प्रणाली (सुरक्षा प्रणाली को अक्षम करने की रोकथाम), दोनों में परिवर्तन किए गए. परमाणु सुविधाओं में ऑपरेटरों पर सुरक्षा जागरूकता और पेशेवर विकास को बढ़ावा देने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संगठन बनाया गयारू ॅ।छव्य वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूक्लिअर ऑपरेटर्स.
आयरलैंड और पोलैंड में विपक्ष ने परमाणु कार्यक्रमों को रोका, जबकि आस्ट्रिया (1978), स्वीडन (1980) और इटली (1987) (चेरनोबिल से प्रभावित) ने जनमत-संग्रह में परमाणु ऊर्जा का विरोध करने या समाप्त करने के लिए मतदान किया. जुलाई 2009 में, इतालवी संसद ने एक कानून पारित किया जिसने पूर्व के एक जनमत संग्रह के परिणाम को रद्द कर दिया और इतालवी परमाणु कार्यक्रम को तुरंत शुरू करने की अनुमति दी.
उद्योग का भविष्य
सैन लुईस ओबिस्पो काउंटी, कैलिफोर्निया, में संयुक्त राज्य अमेरिका में डियाब्लो कैन्यन पावर प्लांट इन्हें भी देखेंरू स्पेज व िचतवेचमबजपअम दनबसमंत नदपजे पद जीम न्दपजमक ैजंजमे, छनबसमंत मदमतहल चवसपबल, छनबसमंत तमदंपेेंदबम, एवं डपजपहंजपवद व िहसवइंस ूंतउपदह
यथा 2007, वाट्स बार 1, 7 फरवरी 1996 को ऑन-लाइन आया, वह आखिरी अमेरिकी वाणिज्यिक परमाणु रियेक्टर था जो ऑन-लाइन गया. इसे अक्सर, परमाणु ऊर्जा को समाप्त करने के लिए एक सफल वैश्विक अभियान के साक्ष्य के रूप में उद्धृत किया जाता है. हालांकि, अमेरिका और पूरे यूरोप में, अनुसंधान और परमाणु ईंधन चक्र में निवेश जारी है, और परमाणु उद्योग के कुछ विशेषज्ञों ने बिजली की कमी, जीवाश्म ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी, ग्लोबल वार्मिंग और जीवाश्म ईंधन के उपयोग से भारी धातु उत्सर्जन होने का पूर्वानुमान लगाया है, नई प्रौद्योगिकी जैसे निष्क्रिय रूप से सुरक्षित संयंत्र, और राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा, परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की मांग को नवीनीकृत करेगी. विश्व परमाणु संघ के अनुसार, 1980 के दशक के दौरान वैश्विक स्तर पर हर 17 दिनों में एक नया परमाणु रिएक्टर औसत रूप से शुरू हुआ और 2015 तक यह दर प्रत्येक 5 दिनों में एक तक बढ़ सकता है.
ब्राउनश्विक परमाणु संयंत्र मुक्ति नहर.
कई देश परमाणु ऊर्जा विकसित करने में सक्रिय हैं, जिसमें चीन, भारत, जापान और पाकिस्तान शामिल है. सभी सक्रिय रूप से तेज और तापीय प्रौद्योगिकी का विकास कर रहे हैं, दक्षिण कोरिया और अमेरिका, केवल तापीय प्रौद्योगिकी का विकास कर रहे हैं, और दक्षिण अफ्रीका और चीन पेबल बेड मॉड्यूलर रिएक्टर (च्ठडत्) के संस्करणों का विकास कर रहे हैं. यूरोपीय संघ के कई सदस्य, सक्रिय रूप से परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहे हैं, जबकि कुछ अन्य सदस्य राज्यों में परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर प्रतिबंध जारी है. जापान में एक सक्रिय परमाणु उत्पादन कार्यक्रम है जिसके तहत 2005 में नई इकाइयों को चालू किया गया. अमेरिका में, 2010 परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के अंतर्गत अमेरिकी ऊर्जा विभाग के अनुरोध का तीन भागीदारों ने 2004 में जवाब दिया और उन्हें मिलान निधि प्रदान की गई - 2005 के ऊर्जा नीति अधिनियम ने छः नए रिएक्टरों के लिए ऋण गारंटी अधिकृत की, और ऊर्जा विभाग को बिजली और हाइड्रोजन, दोनों का उत्पादन करने के लिए चतुर्थ पीढ़ी अति उच्च तापमान रिएक्टर अवधारणा पर आधारित एक रिएक्टर बनाने के लिए अधिकृत किया. यथा 21वीं सदी के पूर्वार्ध, चीन और भारत, दोनों के लिए तेजी से उभरती उनकी अर्थव्यवस्था को समर्थन देने के लिए परमाणु ऊर्जा विशेष रूचि का है - दोनों ही फास्ट ब्रीडर रिएक्टर का विकास कर रहे हैं. (ऊर्जा विकास भी देखें) यूनाइटेड किंगडम की ऊर्जा नीति में, यह माना गया है कि भविष्य की ऊर्जा आपूर्ति में कमी की संभावना है, जिसकी भरपाई या तो नए परमाणु संयंत्रों के निर्माण से या मौजूदा संयंत्रों को उनके निर्धारित जीवन से अधिक समय तक बनाए रखने के द्वारा की जा सकती है.
परमाणु बिजली संयंत्रों के उत्पादन में कुछ संभावित रुकावटें हैं क्योंकि विश्व भर में कुछ ही कंपनियों के पास सिंगल-पीस रिएक्टर दबाव वाहिकाओं को गढ़ने की क्षमता है, जो अधिकांश रिएक्टर डिजाइन में आवश्यक है. दुनिया भर में सुविधा कम्पनियां इन जहाजों के लिए किसी वास्तविक जरूरत के लिए अग्रिम आदेश प्रस्तुत कर रही हैं. अन्य निर्माता विभिन्न विकल्पों का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें शामिल है घटक को स्वयं बनाना, या वैकल्पिक विधि का उपयोग करके समान चीज बनाने के तरीके को खोजना., अन्य समाधान में शामिल है ऐसे डिजाइन प्रयोग करना जिसमें सिंगल-पीस फोर्ज्ड प्रेशर वेसल की जरूरत नहीं है, जैसे कनाडा का अडवांस्ड ब्।छक्न् रिएक्टर या सोडियम कूल्ड फास्ट रिएक्टर.
यह ग्राफ ब्व्2 उत्सर्जन में संभावित वृद्धि को दर्शाता है यदि अमेरिका में परमाणु ऊर्जा के द्वारा वर्तमान में उत्पादित बेस लोड बिजली की जगह कोयले और प्राकृतिक गैस ले लेते हैं जब वर्तमान रिएक्टर अपने 60 वर्ष के लाइसेंस के समाप्त होने पर ऑफलाइन हो जाते हैं.नोटरू ग्राफ यह मान कर चलता है कि सभी 104 अमेरिकी परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को 60 साल के लिए लाइसेंस एक्सटेंशन प्राप्त हुआ है.
चीन की 100 से ज्यादा संयंत्र बनाने की योजना है, जबकि अमेरिका में इसके आधे रिएक्टरों के लाइसेंस को लगभग 60 वर्षों के लिए पहले ही विस्तारित कर दिया गया और 30 नए रिएक्टर बनाने की योजना विचाराधीन हैइसके अलावा, न्ै छत्ब् और अमेरिकी ऊर्जा विभाग ने हलके पानी के रिएक्टर की स्थिरता में अनुसंधान शुरू किया है जिससे रिएक्टर लाइसेंस को 60 साल से अधिक के विस्तार की अनुमति मिलने की आशा है, 20 साल की वृद्धि के साथ, बशर्ते कि सुरक्षा को बनाए रखा जाए, क्योंकि रिएक्टरों को वापस करने के द्वारा गैर-ब्व्2-उत्सर्जन उत्पादन क्षमता अमेरिकी ऊर्जा सुरक्षा को चुनौती दे सकती है, जिससे संभावित रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो सकती है, और बिजली की मांग और आपूर्ति के बीच असंतुलन पैदा हो सकता है 2008 में, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (प्।म्।) का पूर्वानुमान है कि 2030 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता दुगुनी हो सकती है, हालांकि बिजली उत्पादन के परमाणु हिस्से को बढ़ाने के लिए यह पर्याप्त नहीं होगा.
परमाणु रिएक्टर प्रौद्योगिकी मुख्य लेख रू छनबसमंत तमंबजवत जमबीदवसवहल
कैटेनोम परमाणु ऊर्जा संयंत्र.
जिस प्रकार कई परम्परागत तापीय ऊर्जा केंद्र, जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलने वाली ताप ऊर्जा के दोहन से बिजली उत्पन्न करते हैं, वैसे ही परमाणु ऊर्जा संयंत्र, आम तौर पर परमाणु विखंडन के माध्यम से एक परमाणु के नाभिक से निकली ऊर्जा को परिवर्तित करते हैं.
जब एक अपेक्षाकृत बड़ा विखंडनीय परमाणु नाभिक (आमतौर पर यूरेनियम 235 या प्लूटोनियम-239) एक न्यूट्रॉन को अवशोषित करता है तो उस परमाणु का विखंडन अक्सर फलित होता है. विखंडन, परमाणु को गतिज ऊर्जा (विखंडन उत्पादों के रूप में ज्ञात) के साथ दो या दो से अधिक छोटे नाभिक में विभाजित करता है और गामा विकिरण और मुक्त न्यूट्रॉन को भी छोड़ता है., इन न्यूट्रॉनों के एक हिस्से को अन्य विखंडनीय परमाणु द्वारा बाद में अवशोषित किया जा सकता है तथा और अधिक विखंडन जन्म ले सकते हैं, जो और अधिक न्यूट्रॉन को छोड़ेंगे, और इसी प्रकार आगे होता रहेगाइस परमाणु श्रृंखला अभिक्रिया को नियंत्रित करने के लिए न्यूट्रॉन विष और न्यूट्रॉन मंदक का प्रयोग किया जा सकता है, जो न्यूट्रॉन के उस भाग को परिवर्तित कर देता है जो विखंडन को आगे बढ़ाता है. असुरक्षित स्थितियों का पता चलने पर, विखंडन अभिक्रिया को बंद करने के लिए, परमाणु रिएक्टरों में आमतौर पर स्वचालित और हस्तचालित प्रणाली होती है.एक शीतलन प्रणाली, रिएक्टर के केंद्र से ताप को हटाती है और उसे संयंत्र के अन्य क्षेत्र में भेजती है, जहां तापीय ऊर्जा का दोहन बिजली उत्पादन के लिए या अन्य उपयोगी कामों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. आम तौर पर गर्म शीतलक को बॉयलर के लिए एक ताप स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, और बॉयलर की दाबावयुक्त भाप, एक या अधिक भाप टरबाइन द्वारा संचालित विद्युत जनरेटर को ऊर्जा देगा.
रिएक्टर के कई अलग-अलग डिजाइन हैं, जो विभिन्न ईंधन और शीतलक का प्रयोग करते हैं और इनकी नियंत्रण विधि विभिन्न होती है. इन डिजाइनों में से कुछ को किसी किसी विशिष्ट जरूरत को पूरा करने के लिए परिवर्तित किया गया है. परमाणु पनडुब्बी और विशाल नौसेना जहाजों के लिए प्रयुक्त रिएक्टर, उदाहरण के लिए, ईंधन के रूप में अत्यधिक संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाता है. ईंधन का यह विकल्प रिएक्टर के ऊर्जा घनत्व को बढ़ाता है और परमाणु ईंधन लोड के प्रयोग किए जाने की अवधि को लंबा करता है, लेकिन अन्य परमाणु ईंधनों की तुलना में यह अधिक महंगा है और इससे परमाणु प्रसार का अधिक खतरा है.
परमाणु ऊर्जा उत्पादन के लिए ढेरों नए डिजाइन सक्रिय अनुसंधान के अधीन हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से चतुर्थ पीढ़ी रिएक्टर कहा जाता है, और भविष्य में व्यावहारिक ऊर्जा उत्पादन के लिए इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. इनमें से कई नए डिजाइन, विखंडन रिएक्टरों को विशेष रूप से स्वच्छ, सुरक्षित औरध्या एक परमाणु हथियारों के प्रसार के खतरे को कम करने का प्रयास करते हैं. निष्क्रिय रूप से सुरक्षित संयंत्र (जैसे म्ैठॅत्) बनाए जाने के लिए उपलब्ध हैं और अन्य डिजाइन जिनके भूल-रक्षित होने का विश्वास है उन पर काम आगे बढ़ाया जा रहा है.ख्४९, संलयन रिएक्टर, जो भविष्य में व्यवहार्य हो सकते हैं, परमाणु विखंडन के साथ जुड़े कई जोखिमों को कम या समाप्त कर देंगे
जीवन चक्र
परमाणु ईंधन चक्र यूरेनियम के खनन, समृद्ध, और परमाणु ईंधन में निर्मित होने से शुरू होता है,(1) जो कि एक परमाणु ऊर्जा संयंत्र के लिए दिया जाता है. बिजली संयंत्र में उपयोग के बाद, प्रयुक्त ईंधन को एक पुनर्संसाधन संयंत्र (2) में भेजा जाता है या भूवैज्ञानिक जमाव के लिए एक अंतिम रिपोजिटरी में (3)भेजा जाता है.पुनर्संसाधन में प्रयुक्त ईंधन का 95ः पुनर्नवीनीकरण कर के एक बिजली संयंत्र (4) में वापस उपयोग किया जा सकता है.
मुख्य लेख रू छनबसमंत निमस बलबसम
एक परमाणु रिएक्टर, परमाणु ऊर्जा के लिए जीवन चक्र का ही हिस्सा है. यह प्रक्रिया खनन के साथ शुरू होती है (यूरेनियम खनन देखें). यूरेनियम खानें भूमिगत, खुले-गड्ढे की, या स्वस्थानी लीच खानें होती हैं. किसी भी हालत में, यूरेनियम अयस्क को निकाला जाता है, आमतौर पर एक स्थिर और ठोस रूप में परिवर्तित किया जाता है, जैसे यल्लोकेक, और फिर उसे किसी प्रसंस्करण सुविधा में भेजा जाता है. यहां, यल्लोकेक को यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड में परिवर्तित किया जाता है, जिसे फिर विभिन्न तकनीकों का उपयोग करते संवर्धित किया जाता है. इस बिंदु पर, संवर्धित यूरेनियम, जिसमें प्राकृतिक 0.7ः न्-235 से अधिक है, उसका प्रयोग उचित संरचना और ज्यामिति की छड़ें बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, उस विशेष रिएक्टर के लिए जिसके लिए ईंधन नियत है. ईंधन छड़ें रिएक्टर के अंदर करीब तीन परिचालन चक्र पूरा करती हैं (आम तौर पर अब कुल 6 साल), सामान्यतः जब तक कि उनका करीब 3ः यूरेनियम विखंडित न हो जाए, तब उन्हें एक खर्चित ईंधन पूल में भेजा जाता है जहां विखंडन द्वारा उत्पन्न अल्प-जीवित आइसोटोप नष्ट हो जाते हैं. एक शीतलक तालाब में लगभग 5 साल के बाद, खर्चित ईंधन रेडिओधर्मी और तापीय आधार पर संभालने के लिए पर्याप्त ठंडा हो चुका होता है, और उसे शुष्क भंडारण पीपों में रखा जा सकता है या पुनः संवर्धित किया जा सकता है.
परंपरागत ईंधन संसाधन
मुख्य लेख रू न्तंदपनउ उंतामज और म्दमतहल कमअमसवचउमदज - छनबसमंत मदमतहल
यूरेनियम, भू-पर्पटी में पाया जाने वाला काफी आम तत्व है. यूरेनियम लगभग उतना ही आम है जितना भू-पर्पटी में टिन या जर्मेनियम का पाया जाना, और रजत की तुलना में यह 35 गुना आम है. यूरेनियम अधिकांश चट्टानों, धूल और महासागरों का एक घटक है. यह तथ्य कि यूरेनियम इतना बिखरा हुआ है, एक समस्या है, क्योंकि यूरेनियम खनन आर्थिक रूप से केवल वहीं व्यवहार्य है जहां बड़ी मात्रा में इसका संकेन्द्रण हो. फिर भी, वर्तमान में नापे गए दुनिया के यूरेनियम संसाधन, जो आर्थिक रूप से 130 न्ैक्धह की कीमत पर वसूले जा सकते हैं, खपत की वर्तमान दर के अनुसार ष्कम से कम एक सदी तक चलने के लिए पर्याप्त हैंअधिकांश खनिजों की सामान्य तुलना में, यह निश्चित संसाधनों के एक उच्च स्तर को दर्शाता है. अन्य धातु खनिज के साथ अनुरूपता के आधार पर, कीमत में वर्तमान स्तर से दुगुनी वृद्धि करने से मापन किए गए संसाधनों में, समय के साथ दस गुना वृद्धि होने की उम्मीद की जा सकती है. हालांकि, परमाणु ऊर्जा की लागत, मुख्यतः विद्युत् केंद्र के निर्माण में निहित है. इसलिए, उत्पादित बिजली की कुल लागत में ईंधन का योगदान अपेक्षाकृत थोड़ा है, अतः एक अत्यधिक ईंधन मूल्य वृद्धि का अंतिम कीमत पर अपेक्षाकृत कम असर होगा. उदाहरण के लिए, आम तौर पर यूरेनियम की बाजार कीमत का एक दोहरीकरण, हल्के जल के रिएक्टर के लिए ईंधन की कीमत में 26ः की वृद्धि करेगा और बिजली की लागत में करीब 7ः, जबकि प्राकृतिक गैस की कीमत में दुगुनी वृद्धि, आम तौर पर बिजली की कीमत में उस स्रोत से 70ः की बढ़ोतरी करेगी. पर्याप्त उच्च कीमतों पर, स्रोतों से अंततः निकासी, जैसे ग्रेनाइट और समुद्री जल आर्थिक रूप से संभव हो जाते हैं.
वर्तमान के हल्के जल रिएक्टर, परमाणु ईंधन का अपेक्षाकृत अकुशल प्रयोग करते हैं, और केवल बहुत दुर्लभ यूरेनियम-235 आइसोटोप का विखंडन करते हैं. परमाणु पुनर्संसाधन इस कचरे को पुनः उपयोग के लायक बना सकता है और अधिक कुशल रिएक्टर डिजाइन, उपलब्ध संसाधनों के बेहतर प्रयोग की अनुमति देते हैं.
प्रजनन मुख्य लेख रू ठतममकमत तमंबजवत
वर्तमान हल्के जल के रिएक्टरों के विपरीत, जो यूरेनियम-235 (सारे प्राकृतिक यूरेनियम का 0.7ः) का प्रयोग करते हैं, फास्ट ब्रीडर रिएक्टर यूरेनियम- 238 (सारे प्राकृतिक यूरेनियम का 99.3ः) का उपयोग करते हैं. यह अनुमान लगाया गया है कि इन संयंत्रों में 5 बीलियन वर्षों तक प्रयोग के लायक यूरेनियम-238 मौजूद हैं. ब्रीडर प्रौद्योगिकी का कई रिएक्टरों में इस्तेमाल किया गया है, लेकिन ईंधन को सुरक्षित तरीके से पुनर्संसाधित करने की उच्च लागत को, आर्थिक रूप से उचित बनने से पहले 200 न्ैक्धह से अधिक की यूरेनियम कीमतों की आवश्यकता है. यथा दिसंबर 2005, ऊर्जा उत्पादन करने वाला एकमात्र ब्रीडर रिएक्टर बेलोयार्स्क, रूस में ठछ-600 है. ठछ-600 का बिजली उत्पादन 600 मेगावाट है - रूस ने बेलोयार्स्क परमाणु ऊर्जा संयंत्र में एक और इकाई, ठछ-800, के निर्माण की योजना बनाई है. इसके अलावा, जापान के मोंजू रिएक्टर को पुनः आरंभ करने की योजना है (1995 से बंद होने के बाद), और चीन और भारत, दोनों ब्रीडर रिएक्टर बनाने का इरादा रखते हैं.एक अन्य विकल्प होगा यूरेनियम-233 का प्रयोग जिसे थोरिअम ईंधन चक्र में थोरियम से विखंडन ईंधन के रूप में पैदा किया जाता है. थोरियम, भू-पर्पटी में यूरेनियम से 3.5 गुना अधिक आम है, और इसका भौगोलिक लक्षण भिन्न है. यह कुल व्यावहारिक विखंडन-योग्य संसाधन आधार को 450ः तक बढ़ा देगा प्लूटोनियम के रूप में न्-238 के उत्पादन के विपरीत, फास्ट ब्रीडर रिएक्टर आवश्यक नहीं हैं - इसे और अधिक पारंपरिक संयंत्रों में संतोषजनक रूप में संपादित किया जा सकता है. भारत ने इस तकनीक में झांकने की कोशिश की है, क्योंकि इसके पास प्रचुर मात्रा में थोरियम भंडार हैं लेकिन यूरेनियम थोड़ा ही है.
विलय
संलयन ऊर्जा के पैरोकार ईंधन के रूप में सामान्यतः ड्यूटेरिअम या ट्रिटियम के उपयोग का प्रस्ताव करते हैं, दोनों ही हाइड्रोजन के आइसोटोप हैं, और कई मौजूदा डिजाइनों में बोरान और लिथियम का भी. एक संलयन ऊर्जा उत्पादन को मौजूदा वैश्विक उत्पादन के बराबर मान कर और यह मानकर कि इसमें भविष्य में वृद्धि नहीं होगी, तो ज्ञात वर्तमान लिथियम भंडार 3000 साल तक चलेंगे, समुद्री जल का लिथियम 60 मिलियन वर्ष चलेगा, और एक अधिक जटिल संलयन प्रक्रिया जो समुद्री जल से केवल ड्यूटेरिअम का उपयोग करती है उसके पास अगले 150 बीलियन वर्षों तक के लिए ईंधन होगा. यद्यपि इस प्रक्रिया को अभी भी सिद्ध किया जाना है, कई विशेषज्ञ और नागरिक संलयन को भविष्य की एक आशाजनक ऊर्जा के रूप में देखते हैं जिसकी वजह है उसके द्वारा उत्पादित अपशिष्ट की अल्पकालिक रेडियोधर्मिता, इसका निम्न कार्बन उत्सर्जन, और इसका भावी बिजली उत्पादन.
ठोस अपशिष्ट थ्वत उवतम कमजंपसे वद जीपे जवचपब,
इन्हें भी देखेंरू स्पेज व िदनबसमंत ूंेजम जतमंजउमदज जमबीदवसवहपमे
परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से सबसे महत्वपूर्ण अपशिष्ट धारा है खर्चित परमाणु ईंधन. यह मुख्यतः अपरिवर्तित यूरेनियम से बना है और साथ ही ट्रांससुरानिक एक्टिनाइड्स की महत्वपूर्ण मात्रा (अधिकांशतः प्लूटोनियम और क्यूरिअम). इसके अलावा, इसका करीब 3ः, परमाणु अभिक्रिया से निकला विखंडन उत्पाद है. एक्टिनाइड्स (यूरेनियम, प्लूटोनियम और क्यूरिअम) लम्बी अवधि की रेडियोधर्मिता के बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं, जबकि विखंडन उत्पाद, अल्पावधि की रेडियोधर्मिता के बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं
संपादित करें,उच्च-स्तरीय रेडियोधर्मी अपशिष्ट इन्हें भी देखेंरू भ्पही-समअमस ूंेजम
परमाणु रिएक्टर के अन्दर एक परमाणु ईंधन छड़ के 5 प्रतिशत अभिक्रिया कर लेने के बाद, वह छड़ ईंधन के रूप में प्रयोग किए जाने के लायक नहीं रहती (विखंडन उत्पादों की बढ़ने के कारण). आज, वैज्ञानिक इस बात का पता लगा रहे हैं कि कैसे इन छड़ों को दुबारा प्रयोग करने लायक बनाया जाए ताकि कचरे को कम किया जा सके और बचे हुए एक्टिनाइड्स को ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सके (कई देशों में बड़े पैमाने के पुनर्संसाधन का इस्तेमाल किया जा रहा है).
एक ठेठ 1000-मेगावाट परमाणु रिएक्टर, प्रति वर्ष करीब 20 क्यूबिक मीटर (करीब 27 टन) खर्चित परमाणु ईंधन को उत्पन्न करता है (अगर पुनर्संसाधित किया जाए तो 3 क्यूबिक मीटर शीशाकृत मात्रा अमेरिका में सभी वाणिज्यिक परमाणु ऊर्जा संयंत्र द्वारा आज की तारीख तक उत्पन्न खर्चित ईंधन, एक फुटबॉल मैदान को एक मीटर तक भर सकता है खर्चित परमाणु ईंधन शुरू में बहुत उच्च रेडियोधर्मी होता और इसलिए इसे अत्यंत सावधानी और पूर्वविचारित तरीके से संभालना चाहिए. हालांकि, हजारों वर्षों की अवधि के दौरान यह काफी कम रेडियोधर्मी हो जाता है. 40 वर्षों के बाद, विकिरण प्रवाह 99.9ः है, जो संचालन से खर्चित ईंधन को हटाए जाने के क्षण की तुलना में कम है, हालांकि खर्चित ईंधन अभी भी खतरनाक रूप से रेडियोधर्मी है. रेडियोधर्मी क्षय के 10,000 वर्षों के बाद, अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी के मानकों के अनुसार, खर्चित परमाणु ईंधन से सार्वजनिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को कोई खतरा नहीं होगा जब पहली बार निकाला जाता है तो खर्चित ईंधन छड़ों को पानी के परिरक्षित बेसिनों में संग्रहीत किया जाता है (खर्चित ईंधन पूल), जो आमतौर पर साइट पर होते हैं. यह पानी दोनों प्रदान करता है, अब भी नष्ट होते विखंडन उत्पादों के लिए शीतलन और जारी रहने वाली रेडियोधर्मिता से परिरक्षण. एक अवधि के बाद (अमेरिकी संयंत्रों के लिए आमतौर पर पांच साल), अब शीतलक, कम रेडियोधर्मी ईंधन को आम तौर पर एक शुष्क भंडारण सुविधा या शुष्क पीपा भंडारण में भेजा जाता है, जहां ईंधन को स्टील और कंक्रीट के कंटेनरों में रखा जाता है. वर्तमान में ज्यादातर अमेरिकी परमाणु कचरे को साइट पर ही जमा किया जाता है जहां यह उत्पन्न होता है, जबकि उपयुक्त स्थायी निपटान के तरीकों पर चर्चा हो रही है. यथा 2007, संयुक्त राज्य अमेरिका, परमाणु रिएक्टरों से निकले 50,000 मीट्रिक टन से अधिक खर्चित परमाणु ईंधन को जमा कर चुका है.ख्६४, अमेरिकी में स्थायी भूमिगत भंडारण को युक्का पर्वत परमाणु अपशिष्ट भण्डार में प्रस्तावित किया गया था, लेकिन उस परियोजना को अब प्रभावी ढंग से रद्द कर दिया गया है - अमेरिका के उच्च-स्तरीय अपशिष्ट का स्थायी निपटान अभी तक अनसुलझी राजनैतिक समस्या बना हुआ है. उच्च-स्तरीय कचरे की मात्रा को विभिन्न तरीकों से कम किया जा सकता है, विशेष रूप से परमाणु पुनर्संसाधन द्वारा. फिर भी, एक्टिनाइड्स को हटा देने के बावजूद बचा हुआ अपशिष्ट, कम से कम 300 वर्षों तक के लिए काफी रेडियोधर्मी होगा, और यदि एक्टिनाइड्स को अंदर ही छोड़ दिया जाता है तो हजारों साल तक के लिए.ख्उद्धरण वांछित, सारे एक्टिनाइड्स को हटा देने के बाद भी, और फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों का उपयोग करते हुए रूपांतरण द्वारा दीर्घ-जीवित गैर-एक्टिनाइड्स को नष्ट कर देने के बावजूद, कचरे को एक सौ वर्षों से कुछ सौ वर्षों तक वातावरण से अलग रखना आवश्यक है, और इसलिए इसे उचित रूप से एक दीर्घकालिक समस्या के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. उप-जोखिम रिएक्टर या संलयन रिएक्टर भी कचरे को जमा किए जाने की अवधि को कम कर सकते हैं. यह तर्क दिया गया है साँचारूॅीव कि परमाणु कचरे के लिए सबसे अच्छा उपाय है भूमि के ऊपर अस्थायी भंडारण, क्योंकि तकनीक तेजी से बदल रही है. कुछ लोगों का मानना है कि मौजूदा अपशिष्ट भविष्य में एक मूल्यवान संसाधन हो सकता है
60 मिनट में प्रसारित 2007 की एक कहानी के अनुसार, किसी भी अन्य औद्योगिक देश की तुलना में, परमाणु ऊर्जा, फ्रांस को सबसे स्वच्छ हवा देती है, और सम्पूर्ण यूरोप में सबसे सस्ती बिजली. फ्रांस अपने परमाणु कचरे को, उसका द्रव्यमान कम करने के लिए और अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए पुनः संवर्धित करता है, हालांकि लेख जारी रहता है, ष्आज हम कचरे के कंटेनरों को जमा रखते हैं क्योंकि वर्तमान में वैज्ञानिकों को यह नहीं पता है कि विषाक्तता को कैसे कम या समाप्त किया जाए, लेकिन शायद 100 वर्षों बाद वैज्ञानिकों को पता होगा ... परमाणु कचरा, एक अत्यधिक कठिन राजनीतिक समस्या है जिसे आज तक कोई भी देश सुलझा नहीं पाया है. एक अर्थ में, यह परमाणु उद्योग की कमजोर कड़ी है... मंदिल का कहना है कि, ष्अगर फ्रांस यह मुद्दा हल करने में असमर्थ है, तो मुझे नहीं समझ में आता कि हम अपना परमाणु कार्यक्रम कैसे जारी रख सकते हैं इसके अलावा, खुद पुनर्संसाधन के भी आलोचक हैं, जैसे चिंतित वैज्ञानिकों का संघ.
निम्न-स्तरीय रेडियोधर्मी अपशिष्ट इन्हें भी देखेंरू स्वू-समअमस ूंेजम
परमाणु उद्योग, दूषित वस्तुओं के रूप में निम्न-स्तरीय रेडियोधर्मी कचरे का भी भारी मात्रा में उत्पादन करता है, जैसे कपड़ा, हस्त-उपकरण, जल शुद्धक रेजिन, और (चालु होने पर) वे सामग्रियां जिनसे रिएक्टर खुद बना है. संयुक्त राज्य अमेरिका में, परमाणु नियामक आयोग ने निम्न-स्तरीय कचरे को सामान्य कचरे के रूप में व्यवहार किए जाने की अनुमति देने की बार-बार कोशिश की हैरू किसी एक जगह जमा कर, उपभोक्ता वस्तु के रूप में पुनर्नवीनीकरण के द्वारा.ख्उद्धरण वांछित, अधिकांश निम्न-स्तरीय कचरे, निम्न स्तर की रेडियोधर्मिता छोड़ते हैं और सिर्फ अपने इतिहास की वजह से रेडियोधर्मी कचरा माने जाते हैं
रेडियोधर्मी अपशिष्ट की औद्योगिक विषाक्त अपशिष्ट से तुलना
परमाणु ऊर्जा वाले देशों में, कुल औद्योगिक विषाक्त कचरे में रेडियोधर्मी कचरे का योगदान 1ः से भी कम है, जिसमें से अधिकांश भाग अनिश्चित काल तक के लिए खतरनाक बना रहता है. कुल मिलाकर, जीवाश्म-ईंधन आधारित विद्युत संयंत्रों की तुलना में परमाणु ऊर्जा द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा काफी कम होती है. कोयला चालित संयंत्रों को विषाक्त और हल्की रेडियोधर्मी राख उत्पन्न करने के लिए विशेष रूप से जाना जाता है जिसकी वजह है स्वाभाविक रूप से होने वाले धातुओं का संकेन्द्रण और कोयले से निकलने वाली मंद रेडियोधर्मी वस्तु. ओक रिज नेशनल लेबोरेटरी की एक ताजा रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला है कि कोयला ऊर्जा से वातावरण में, परमाणु ऊर्जा संक्रिया की तुलना में वास्तव में अधिक रेडियोधर्मिता पहुंचती है, और कि कोयले के संयंत्र के विकिरण के बराबर जनसंख्या प्रभावी खुराक, परमाणु संयंत्र के आदर्श संचालन से 100 गुना ज्यादा हैबेशक, कोयले की राख, परमाणु कचरे से काफी कम रेडियोधर्मी है, लेकिन राख वातावरण में सीधे जाती है, जबकि परमाणु संयंत्र, विकिरणित रिएक्टर पोत, ईंधन छड़ें, और साइट पर किसी भी रेडियोधर्मी अपशिष्ट से पर्यावरण की सुरक्षा के लिए परिरक्षण का उपयोग करते ह
पुनर्संसाधन थ्वत उवतम कमजंपसे वद जीपे जवचपब
पुनर्संसाधन से, खर्चित परमाणु ईंधन से प्लूटोनियम और यूरेनियम के संभावित रूप से 95ः को, इसे मिश्रित ऑक्साइड ईंधन में डाल कर पुनः प्राप्त किया जा सकता है. इससे बचे हुए कचरे के भीतर दीर्घकालिक रेडियोधर्मिता में कमी होती है, क्योंकि यह काफी हद तक एक अल्पकालिक विखंडन उत्पाद है, और 90ः से अधिक एक अपनी मात्रा कम कर लेता है. ऊर्जा रिएक्टरों से नागरिक ईंधन का पुनर्संसाधन, वर्तमान में बड़े पैमाने पर ब्रिटेन, फ्रांस और (पूर्व) रूस में किया जाता है, और शीघ्र ही चीन में और शायद भारत में भी किया जाएगा और जापान में यह एक बृहत् पैमाने पर किया जा रहा है. पुनर्संसाधन की पूर्ण क्षमता को हासिल नहीं किया गया है क्योंकि इसके लिए 0} ब्रीडर रिएक्टर की आवश्यकता होती है, जो अभी तक वाणिज्यिक रूप से उपलब्ध नहीं है. . फ्रांस को सबसे सफल पुनर्संसाधन करने वाले के रूप में जाना जाता है, लेकिन वह वर्तमान में प्रयोग किए जाने वाले वार्षिक ईंधन का केवल 28ः (द्रव्यमान के आधार पर) को पुनर्संसाधित करता है, फ्रांस के अन्दर 7ः को, और शेष 21ः को रूस में. अन्य देशों के विपरीत, अमेरिका ने 1976 से 1981 तक, अमेरिकी अप्रसार नीति के एक हिस्से के रूप में नागरिक पुनर्संसाधन को रोक दिया, क्योंकि पुनर्संसाधित सामग्री जैसे प्लूटोनियम को परमाणु हथियारों में इस्तेमाल किया जा सकता हैरू हालांकि, अमेरिका में पुनर्संसाधन की अब अनुमति है.फिर भी, अमेरिका में सभी खर्चित परमाणु ईंधन को वर्तमान में अपशिष्ट के रूप में समझा जाता है.
फरवरी, 2006 में, एक नई अमेरिकी पहल, वैश्विक परमाणु ऊर्जा भागीदारी की घोषणा की गई. यह एक अंतरराष्ट्रीय प्रयास होगा जो ईंधन के पुनर्संसाधन को इस तरीके से करेगा कि जिससे परमाणु प्रसार अव्यवहार्य हो जाएगा, जबकि विकासशील देशों को परमाणु ऊर्जा उपलब्ध रहेगी.
रक्त यूरेनियम मुख्य लेख रू क्मचसमजमक नतंदपनउ
यूरेनियम संवर्धन, कई टन के रिक्त यूरेनियम (क्न्) को उत्पन्न करता है, जो न्-238 से बना होता है जिसमें से, आसानी से विखंडनीय न्-235 आइसोटोप को हटा दिया गया होता है. न्-238 एक कठोर धातु है जिसके कई वाणिज्यिक उपयोग हैं - उदाहरण के लिए, विमान उत्पादन, विकिरण परिरक्षण, और कवच - क्योंकि लीड की तुलना में इसका घनत्व उच्च है. रिक्त यूरेनियम, हथियारों में भी उपयोगी है जैसे क्न् पेनीट्रेटर (गोलियां या ।च्थ्ैक्ै टिप) का सेल्फ शार्पेन जिसकी वजह है कतरनी बैंड के साथ फ्रैक्चर की यूरेनियम की प्रवृत्तिकुछ ऐसी भी चिंताएं हैं कि न्-238, उन समूहों के लिए स्वास्थ्य खतरा उत्पन्न कर सकता है जो इस सामग्री के संपर्क में जरूरत से ज्यादा रहते हैं, जैसे टैंक के कर्मचारी दल और वे नागरिक जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां क्न् गोला बारूद की एक बड़ी मात्रा का प्रयोग परिरक्षण, बम, मिसाइल, स्फोटक शीर्ष, और गोलियों में किया गया हो. जनवरी 2003 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिपोर्ट खोज को जारी किया कि क्न् युद्ध सामग्री से संदूषण स्थानीय क्षेत्र में प्रभाव स्थल से कुछ दसियों मीटर तक था और स्थानीय वनस्पति और जल का संदूषण श्बेहद कमश् था. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि खा ली गई लगभग 70ः क्न् चौबीस घंटे बाद शरीर से निकल जाएगी और कुछ दिनों के बाद 90ः
अर्थशास्त्र मुख्य लेख रू म्बवदवउपबे व िदमू दनबसमंत चवूमत चसंदजे
इन्हें भी देखेंरू त्मसंजपअम बवेज व िमसमबजतपबपजल हमदमतंजमक इल कपििमतमदज ेवनतबमे
परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का अर्थशास्त्र, मुख्य रूप से विशाल प्रारंभिक निवेश से प्रभावित होता है जो एक संयंत्र का निर्माण करने के लिए आवश्यक है. 2009 में, अमेरिका में एक नए संयंत्र की लागत अनुमानित रूप से $6 से $10 बीलियन के बीच होती है. इसलिए यह आमतौर पर अधिक किफायती होता है कि उन्हें जितना लम्बा हो सके चलाया जाए या या मौजूदा सुविधाओं में ही अतिरिक्त रिएक्टर ब्लॉकों का निर्माण किया जाए. 2008 में, नए परमाणु ऊर्जा संयंत्र के निर्माण की लागत अन्य प्रकार के ऊर्जा संयंत्रों की लागत की तुलना में तेजी से बढ़ रहे थ े2003 डप्ज् के लिए इस उद्योग का अध्ययन करने के लिए गठित एक प्रतिष्ठित पैनल ने निम्नलिखित पाया
प्द कमतमहनसंजमक उंतामजे, दनबसमंत चवूमत पे दवज दवू बवेज बवउचमजपजपअम ूपजी बवंस ंदक दंजनतंस हंे. भ्वूमअमत, चसंनेपइसम तमकनबजपवदे इल पदकनेजतल पद बंचपजंस बवेज, वचमतंजपवद ंदक उंपदजमदंदबम बवेजे, ंदक बवदेजतनबजपवद जपउम बवनसक तमकनबम जीम हंच. ब्ंतइवद मउपेेपवद बतमकपजे, प िमदंबजमक इल हवअमतदउमदज, बंद हपअम दनबसमंत चवूमत ं बवेज ंकअंदजंहम.कृज्ीम थ्नजनतम व िछनबसमंत च्वूमतख्८२,
डप्ज् अध्ययन ने परमाणु रिएक्टर के जीवन के लिए एक 40 वर्ष की आधार-रेखा का इस्तेमाल किया. कई मौजूदा संयंत्रों को अच्छी तरह से संचालित करने के लिए इस अवधि से आगे बढ़ाया गया है, और अध्ययनों से पता चला है कि संयंत्र के जीवन को 60 वर्षों तक बढ़ाने से उसकी समग्र लागत नाटकीय रूप से कम हो जाती हैअन्य ऊर्जा स्रोतों के साथ तुलनात्मक अर्थशास्त्र की ऊपर मुख्य लेख में और परमाणु ऊर्जा बहस में चर्चा की गई है.
परमाणु ऊर्जा संयंत्रों का लचीलापन
अक्सर यह दावा किया गया है कि परमाणु केंद्र अपने उत्पादन में लचीले नहीं होते हैं, जिसका अर्थ है कि चरम मांग को पूरा करने के लिए ऊर्जा के अन्य रूपों की आवश्यकता होगी. हालांकि यह कुछ रिएक्टरों के मामले में सच है, यह अब कम से कम कुछ आधुनिक डिजाइन वालों पर लागू नहीं होता
परमाणु संयंत्रों को फ्रांस में बड़े पैमाने पर नियमित तौर पर लोड पालन मोड में इस्तेमाल किया जाता है
उबलते जल के रिएक्टरों में सामान्य रूप से लोड पालन क्षमता होती है, जिसे जल के प्रवाह को बदलने के द्वारा कार्यान्वित किया जाता है.
सुरक्षा मुख्य लेख रू छनबसमंत ेंमिजल
इन्हें भी देखेंरू छनबसमंत ेंमिजल पद जीम न्दपजमक ैजंजमे, छनबसमंत ेंमिजल ेलेजमउे, क्मेपहद ठंेपे ।बबपकमदज, ैव्।त्ब्।, एवं छनबसमंत ंदक तंकपंजपवद ंबबपकमदजे
संपादित करें,परमाणु ऊर्जा के पर्यावरणीय प्रभाव
मुख्य लेख रू म्दअपतवदउमदजंस मििमबजे व िदनबसमंत चवूमत
संपादित करें,ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन जीवन-चक्र की तुलना
मुख्य लेख रू ब्वउचंतपेवदे व िसपमि-बलबसम हतममदीवनेम हंे मउपेेपवदे
कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के जीवन चक्र विश्लेषण (स्ब्।) की अधिकांश तुलना, परमाणु ऊर्जा को नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की तुलना में दर्शाती है
परमाणु ऊर्जा पर बहस मुख्य लेख रू छनबसमंत चवूमत कमइंजम
इन्हें भी देखेंरू छनबसमंत मदमतहल चवसपबल एवं ।दजप-दनबसमंत उवअमउमदज
परमाणु ऊर्जा बहस उस विवाद के बारे में है जो परमाणु ईंधन से बिजली पैदा करने के असैनिक उद्देश्यों के लिए परमाणु विखंडन रिएक्टरों की तैनाती और उपयोग के इर्द-गिर्द चलता है. परमाणु ऊर्जा से सम्बंधित विवाद 1970 और 1980 के दशक के दौरान चरम पर था, जब यह कुछ देशों में, ष्इतना भीषण हो गया जो प्रौद्योगिकी इतिहास में अभूतपूर्व था
परमाणु ऊर्जा के समर्थकों का तर्क है कि परमाणु ऊर्जा एक संपोषणीय ऊर्जा स्रोत है जो विदेशी तेल पर निर्भरता को कम करते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करता है और ऊर्जा सुरक्षा को बढ़ाता है.ख्९३, समर्थकों का दावा है कि परमाणु ऊर्जा, जीवाश्म ईंधन के प्रमुख व्यवहार्य विकल्प के विपरीत, वास्तव में कोई पारंपरिक वायु प्रदूषण नहीं फैलाती है, जैसे ग्रीन हाउस गैस और कला धुंआ. समर्थकों का यह भी मानना है कि परमाणु ऊर्जा ही अधिकांश पश्चिमी देशों के लिए ऊर्जा में निर्भरता प्राप्त करने का एकमात्र व्यवहार्य रास्ता है. समर्थकों का दावा है कि कचरे के भंडारण का जोखिम छोटा है और जिसे नए रिएक्टरों में नवीनतम प्रौद्योगिकी के उपयोग द्वारा आगे कम किया जा सकता है, और पश्चिमी विश्व में अन्य प्रकार के प्रमुख ऊर्जा संयंत्रों की तुलना में, परिचालन सुरक्षा इतिहास उत्कृष्ट रहा है.
विरोधियों का मानना है कि परमाणु ऊर्जा लोगों और पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न करती है.इन खतरों में शामिल है रेडियोधर्मी परमाणु अपशिष्ट के प्रसंस्करण, परिवहन और भंडारण की समस्या, परमाणु हथियार प्रसार और आतंकवाद और साथ ही साथ यूरेनियम खनन से होने वाले स्वास्थ्य खतरे और पर्यावरण नुकसानउनका यह भी तर्क है कि रिएक्टर खुद अत्यधिक जटिल मशीनें हैं जहां बहुत सी बातें गलत हो सकती हैं या कर सकती हैं, और कई गंभीर परमाणु दुर्घटनाएं हो चुकी हैंआलोचक इस बात पर विश्वास नहीं करते हैं कि ऊर्जा के स्रोत के रूप में परमाणु विखंडन के उपयोग के जोखिम को नई प्रौद्योगिकी के विकास के माध्यम समायोजित किया जा सकता है. उनका यह भी तर्क है कि जब परमाणु ईंधन श्रृंखला के सभी ऊर्जा-गहन चरणों पर ध्यान दिया जाता है, यूरेनियम खनन से लेकर परमाणु कार्यमुक्ति तक, परमाणु ऊर्जा, एक निम्न-कार्बन विद्युत् स्रोत नहीं हैसुरक्षा और अर्थशास्त्र के तर्कों का, बहस के दोनों पक्षों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है.
150 से अधिक नौसेना पोतों का निर्माण किया गया ह
भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम तथा अमरीका के साथ 123 करार
नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग पर भारत और संयुक्त राज्य अमरीका के बीच हुई संधि पर इन दिनों जो गहन बहस की जा रही है उस बहस को राष्ट्र की जनता देख रही है। प्रधानमंत्री के अमरीका दौरे और 18 जुलाई, 2005 को जारी संयुक्त विज्ञप्ति ने करार की प्रक्रिया की शुरूआत की है। आधी-अधूरी जानकारियों, दुराग्रहपूर्ण आलोचनाओं और दलगत राजनीति ने संसद में गम्भीर, परिपक्व और तथ्यपरक बहस नहीं होने दी। इसके परिणाम स्वरूप भारत की जनता को करार के बारे में मिलने वाली तथ्यात्मक जानकारी और उससे होने वाले लाभ से वंचित कर दिया गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन की वाहक रही है और जिसके नेतृत्व ने स्वतंत्र भारत को विश्व के अग्रणी राष्ट्रों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है, देश हित में किये गये इस करार पर भी राष्ट्रव्यापी बहस का स्वागत करती है। कांग्रेस सच्ची जनतांत्रिक भावना के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ है। इसलिए इस करार पर तथा अन्य किसी भी राष्ट्रीय महत्व के विषय पर बहस के लिए सदैव तत्पर है। परमाणु कार्यक्रमों में भारत की आत्मनिर्भरता एक चुनौतीपूर्ण और लम्बी यात्रा है। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तथ्यपूर्ण बहस की जरूरत है। जवाहर लाल नेहरू के दूरदर्शी नेतृत्व ने पचास के शुरूआती दशक में परमाणु ऊर्जा के कार्यक्रम की आधारशिला रखी थी। उन्होंने भारत के परमाणु कार्यक्रम के जनक डॉ. होमी भाभा एवं उनकी विशिष्ट टीम को सभी आवश्यक मदद मुहैय्या करायी थी। शुरूआत से ही, नेहरू जी ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भारत का परमाणु कार्यक्रम शान्तिपूर्ण तथा ऊर्जा सुरक्षा के लिए समर्पित होगा। इस बिन्दु पर यह कहना आवश्यक होगा कि अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग इस कार्यक्रम का एक अभिन्न हिस्सा है तथा पहला परमाणु ऊर्जा केंद्र अमरीकी सहयोग से वर्ष 1963 में तारापुर में स्थापित किया गया था। राजस्थान व तमिलनाडु के परमाणु रिएक्टर कनाडा के सहयोग से लगाये गये थे। इस दौरान भारत के रूस, फ्रांस व अन्य देशों के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए। इससे अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि हुई। अक्तूबर 1964 में चीन द्वारा किए गये परमाणु विस्फोट के कारण गम्भीर सुरक्षा चिन्तायें बढ़ी जिसकी वजह से परमाणु सोच में बुनियादी बदलाव आया था। वर्ष 1968 में पांच परमाणविक अस्त्र वाले देश-संयुक्त राज्य अमरीका, सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस तथा चीन ने एकजुट होकर नाभिकीय अप्रसार संधि (एन.पी.टी) पर दस्तखत किए। इन परमाणुविक अस्त्र सम्पन्न पांच देशों ने परमाणु मामले में अपने पास सारे अधिकार सुरक्षित कर लिए। दूसरे सभी देशों के लिए इन परमाणविक अस्त्र सम्पन्न पांच देशों ने यह व्यवस्था दे डाली कि परमाणु सहयोग अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा उपायों द्वारा नियंत्रित होंगे। फलस्वरूप सारा संसार श्परमाणु-युक्त एवं परमाणु-विहीनश् क्षेत्र में बंट गया। भारत ने इस पक्षपातपूर्ण नाभिकीय अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत के सुरक्षा हितों के मद्देनजर यह एक सैद्धान्तिक कदम था जिसने परिस्थितियों की मांग के अनुरूप हमारे परमाणु विकल्प को जीवित रखा। मई, 1974 में भारत ने राजस्थान के पोखरण में एक शान्तिपूर्ण परमाणु परीक्षण किया। यह साहसी फैसला केवल श्रीमती इन्दिरा गांधी के नेतृत्व ने संभव बनाया था, जो भारत को आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने के लिए प्रतिबद्ध थी। दुर्भाग्यवश, विश्व ने एकतरफा कार्यवाही करते हुए परमाणु ऊर्जा सहयोग को अकस्मात् बंद कर दिया। भारत अपने वैज्ञानिकों के साथ खड़ा रहा जिन्होंने देशी संसाधन और तकनीक के द्वारा स्वायत्त परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को जारी रखने की चुनौती को स्वीकार किया। अमरीका की पहल पर 45 देशों का परमाणु आपूर्ति समूह बना, जो नाभिकीय कच्चा माल और तकनीक के अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय पर नियंत्रण रखने लगा था। इसका विपरीत असर भारत जैसे देश के परमाणु कार्यक्रम पर पड़ा।

मई 1998 में भारत ने पोखरण में 5 परमाणु परीक्षण किए और दुनिया को बताया कि उसके पास परमाणु अस्त्र हैं। भारत ने अपने निकट पड़ोसियों के द्वारा सशस्त्रीकरण एवं परमाणु प्रसार से उत्पन्न रणनीतिक मजबूरियों की वजह से यह किया था। भारत को परमाणु सक्षम बनाने का श्रेय कांग्रेस सरकारों के समय किए गए निरंतर शोध व विकास को जाता है। यह उन वैज्ञानिकों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता भी था जिन्होंने तीन दशकों तक लगे कठोर प्रतिबंधों के बावजूद लगातार कड़ी मेहनत की और उस तकनीक को हासिल किया। पोखरण-2 परीक्षण के चलते भारत ने भविष्य के परमाणु परीक्षणों के संदर्भ में स्वैच्छिक एकतरफा रोक तथा श्पहले प्रयोग न करनेश् के परमाणु नीति की घोषणा करते हुए दुनिया को आश्वस्त कराया कि यह परीक्षण विश्वसनीय न्यूनतम निवारण एवं रक्षात्मक है तथा किसी विरोधी द्वारा परमाणु आक्रमण से स्वयं को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से किया गया है। कांग्रेस पार्टी की परमाणु मुद्दे पर सुविचारित तथा स्पष्ट राय रही है। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में जारी चुनाव घोषणा पत्र में इसे शब्दांकित किया गया था। कांग्रेस का स्पष्ट कहना है कि श्श्कांग्रेस एक विश्वसनीय परमाणु अस्त्र कार्यक्रम को जारी रखने के लिए वचनबद्ध है। जबकि इसके साथ-साथ परमाणु सम्पन्न पड़ोसी देशों के साथ परस्पर विश्वास निर्माण के प्रयासों को भी आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को गतिशील बनाएगी। कांग्रेस अंतर्राष्ट्रीय परमाणु निशस्त्रीकरण और परमाणु अस्त्रों से मुक्त विश्व व्यवस्था को विकसित करने में नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगीश्श्। साथ ही कांग्रेस पार्टी ने भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता को उजागर किया है, जिसमें ऊर्जा के सभी महत्वपूर्ण स्रोत-जल, कोयला, तेल, परमाणु तथा नवीकरणीय ऊर्जा की महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत अमरीका के बीच हुए नागरिक परमाणु ऊर्जा करार को इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिये। इसका प्राथमिक उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय मुख्यधारा से भारत के एकाकीपन को समाप्त करना तथा देश को इस योग्य बनाना है कि वह परमाणु शोध एवं प्रौद्योगिकी के अंतरराष्ट्रीय सहयोग में पूरी भागीदारी निभा सके। श्परमाणु आपूर्ति समूहश् के द्वार खोलने के लिए तथा सभी देशों विशेषकर अमरीका, फ्रांस, कनाडा, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका आदि से परमाणु ईंधन व प्रौद्योगिकी हेतु सम्बन्धों में वृद्धि के लिए भी इस प्रकार की सोच आवश्यक थी। परमाणु ऊर्जा के द्वारा ही वर्ष 2020 तक 20,000 मेगावाट ऊर्जा सृजित करने के लिए अधिक परमाणु रिएक्टर स्थापित करने के भारत के प्रयास को गति प्राप्त हो सकती है। यह भारत के कुल ऊर्जा उत्पादन का 10 फीसदी तक हो सकता है। भारत की ऊर्जा आवश्यकता, उसकी बढ़ती जनसंख्या व उसकी आर्थिक व औद्योगिक वृद्धि को देखते हुए बहुत अधिक है। इसलिए भारत के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह ऊर्जा सुरक्षा के लिए एक समग्र व दूरगामी दृष्टि के साथ काम करे। आज समूचा विश्व श्ग्लोबल वार्मिंगश् और जलवायु परिवर्तन के दौर से जूझ रहा है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा का अधिकाधिक महत्व है क्योकि वह स्वच्छ होती है। निःसन्देह, जब से ाारत में थोरियम का संसार में सबसे बड़ा भंडार मिला है तब से भारत में परमाणु ऊर्जा का महत्व अधिकाधिक बढ़ गया है। इसके तीन चरणों के परमाणु कार्यक्रम का अन्ततः उद्देश्य भी थोरियम ईंधन को परमाणु ऊर्जा सृजन के लिए उपयोग में लाना है। यह जानना आवश्यक है कि उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को अधिक यूरेनियम ईंधन रएक्टरों की जरूरत है। हालांकि भारत में यूरेनियम की खानें हैं, पर यह भी सच है कि भारत के अपने भंडार सीमित ही हैं। नागरिक परमाणु ऊर्जा करार भारत को विशेष महत्व देते हुए एक खास श्रेणी में रखता है। एक ऐसी श्रेणी जहां पर एक राष्ट्र के पास अमरीका की तरह परमाणु तकनीक उपलब्ध है और जहां दोनों साझेदारों का बराबर का लाभ व हित है। यह परमाणु भेदभाव समाप्त करने का शुरूआती कदम है जिसने हमारे परमाणु शोध एवं विकास को तथा हमारी आर्थिक समृद्धि के लिए आवश्यक ऊर्जा सृजन की ख्वाहिश को जंजीरों में जकड़ा हुआ था। हमारे किसानों को पम्पसेट के द्वारा खेत सींचने के लिए बिजली की जरूरत है। हमें यह भी याद रखना है कि देश के अधिकांश ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के घरों और उनकी जिन्दगी को भी रोशन करना है। इसलिए एक जिम्मेदार सरकार ने अपनी जनता की उचित आवश्यकताओं को देखते हुए एक कारगर एवं सही कदम उठाया है। यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह करार दो संप्रभु राष्ट्र अमरीका तथा भारत के बीच हुआ है। भारत बराबर का साझीदार है। सरकार ने बातचीत को अभूतपूर्व ढंग से पारदर्शी बनाया है जिसे संसद के दोनों सदनों में तीन चर्चाओं द्वारा रेखांकित किया गया। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सहयोगी दलों तथा विपक्ष द्वारा व्यक्त आशंकाओं को ध्यान में लेते हुए बिन्दुवार प्रत्येक आक्षेप का स्पष्टीकरण दिया। सरकार ने स्पष्ट रूप से विश्वास दिलाया कि करार परिभाषित मापदंडों के दायरे में है। यह, प्रक्रिया को पुनारम्भ करने, सामरिक महत्व के ऊर्जा भंडार सृजित करने तथा अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोग की, भारत को पूरी गारण्टी देता है। किसी भी बात पर भारत पीछे नहीं हटा है तथा सभी बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। वर्तमान करार हमारे रणनीतिक परमाणु कार्यक्रम, हमारे त्रिस्तरीय स्वदेशी परमाणु कार्यक्रम तथा हमारी शोध व विकास की स्वायत्तता की कीमत पर नहीं किया गया है। यह दस्तावेज उन तमाम आशंकाओं का निराकरण करता है जो करार के सिलसिले में उठायी जा रही है तथा वर्तमान सरकार के खिलाफ अनर्गल आरोप जड़े जा रहे है। हम, इस बात को जानते हैं और इसका पूरा सम्मान करते हैं कि लोकतंत्र में हमेशा अलग-अलग नजरिये और दृष्टिकोण होते हैं। मतभिन्नता लोकतंत्र की पहचान है। कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय सुरक्षा तथा विदेशनीति के सवाल पर हमेशा सर्वानुमति पर भरोसा जताया है, भारत की सार्वभौमिकता एवं अखण्डता की हिफाजत की है तथा वह अंतरराष्ट्रीय सवालों पर आत्मनिर्भरतापूर्ण एवं स्वविवेक से निर्णय लेने की पक्षधर रही है। यहां पर यह स्मरण करना उपयुक्त होगा कि कांग्रेसाध्यक्ष ने जून, 2003 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री को प्रतिवाद-पत्र भेजा था। इस पत्र का ही नतीजा था कि भाजपानीत राजग सरकार ने भारतीय सेना को इराक भेजे जाने से रोका था। कौन नहीं जानता कि भाजपानीत राजग शासनकाल में शर्मनाक कंधार कांड हुआ था जिसमें भारत के विदेश मंत्री स्वयं दुर्दान्त आतंकवादियों को दिसम्बर, 1999 में कंधार छोड़ने गये थे। राजग शासनकाल में विदेश मंत्री, अमरीकी उपसचिव स्ट्रोव टालबोट से बिना संसद को या देश को विश्वास में लिए लम्बी बातचीत करने में लगे रहे थे। लोगों को याद दिलाने के लिए यह कुछ ऐसे तथ्य हैं कि उन लोगों द्वारा विदेशनीति को कैसे संचालित किया गया था जो आज संप्रग सरकार द्वारा किये गये राष्ट्रीय समझौते पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं। भारत की स्वतंत्र विदेश नीति के प्रधान शिल्पी पंडित जवाहर लाल नेहरू और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रही है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत के राष्ट्रीय हितों को हमेशा दलगत राजनीति से ऊपर रखा है। राष्ट्र के रणनीतिक एवं प्रभुसत्ता से जुड़े हितों के साथ समझौते करने का कोई भी आरोप न केवल निराधार बल्कि सत्यता से परे है। कांग्रेस पार्टी भारत की स्वतंत्रता तथा उसके सर्वोच्च राष्ट्रीय हितों के लिए हमेशा दृढ़ प्रतिज्ञ रही है और दृढ़ प्रतिज्ञ रहेगी।
1. ऊर्जा की बढ़ती मांग
भारत जैसे एक विकासशील देश की आर्थिक प्रगति के मार्ग में ऊर्जा की कमी सबसे बड़ी अड़चन है, क्योंकि हमारे देश में अधिकांश आबादी को बिजली उपलब्ध नहीं है, इसलिए बिजली की खपत बहुत कम है। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था का विकास होगा और हमारी आमदनी बढ़ेगी, वैसे-वैसे बिजली और ऊर्जा के दूसरे साधनों की मांग भी बढ़ेगी। हमारे किसान जानते हैं कि पिछले वर्षों में उनकी बिजली की मांग बढ़ी है। किसानों को अपने खेतों की सिंचाई हेतु पम्पसेट चलाने के लिए, बिजली की जरूरत है। अब खेती के बहुत से कामों में मशीनों का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसके लिए बिजली की जरूरत होती है। गांवों में भी घरेलू इस्तेमाल की चीजों के लिए बिजली की जरूरत है। सरकार भारत निर्माण तथा राजीव गांधी विद्युतीकरण योजना के तहत देश भर में संपूर्ण रूप से बिजली पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है। परन्तु दुर्भाग्य से हम इस बढ़ती हुई मांग को पूरा करने में असमर्थ हैं। हमारे देश के अधिकांश लोग अभी भी ऐसे गांवों में रह रहे हैं जहां नियमित और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति नहीं हो पा रही है। हमारे शहरी इलाके भी बिजली की समस्या से त्रस्त हैं। अधिकांश झुग्गी झोपड़ियों में बिजली की आपूर्ति है ही नहीं। यहां तक कि जहां बिजली के कनेक्शन हैं भी वहां भी लोग बिजली की कटौती तथा लोड शेडिंग से परेशान हैं। इसलिए हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम देश में बिजली की आपूर्ति बढ़ायें। इससे हमारे सभी घरों में उजाला होगा, इससे हमारे बच्चे अच्छी रोशनी में घर पर और स्कूल में पढ़ाई कर पाएंगे। इससे हमारे किसान, दस्तकार तथा मजदूर उत्पादन के साधन के रूप में बिजली का प्रयोग कर सकेंगे। इससे हम सब लोग बिजली के उपकरणों का उपयोग कर जीवन को आरामदायक बना पाएंगे, इससे औद्योगिक विकास होगा और बुनियादी ढांचा बेहतर बनेगा तथा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था कारगर बनेगी।
2. बिजली आपूर्ति बढ़ाने की रणनीति
हमारी सरकार देश में बिजली की आपूर्ति को पूरा करने के लिए जोर शोर से प्रयास करती रही है। ऊर्जा आपूर्ति के बहुत स्रोत हैं। बिजली पैदा करने के मुख्य साधनों में हम कोयला जलाना (ताप विद्युत), नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को काम में लाना (जल विद्युत) तथा प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम का इस्तेमाल कर रहे हैं। कोयला, गैस तथा तेल सभी अक्षय ऊर्जा संसाधन है। इसके अलावा कोयला तथा तेल जलाकर बिजली पैदा करने से पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। इससे प्रदूषण पैदा होता है और उसके फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग होती है। हांलाकि जल विद्युत से प्रदूषण नहीं होता परन्तु यह पर्यावरण के अनुकूल नहीं है क्योंकि बड़े-बड़े बांध हमारी प्राकृतिक सम्पदाओं को नष्ट कर सकते हैं तथा लोगों को विस्थापित कर सकते हैं। आधुनिक विज्ञान से हमें पवन, बायोगैस तथा सौर ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा के प्राकृतिक संसाधनों से बिजली का उत्पादन करने में मदद मिली है। फिर भी ये संसाधन अपने दायरों तथा क्षमताओं की दृष्टि से सीमित हैं। हमें आशा है कि भविष्य में हम इन स्रोतों से अधिक बिजली पैदा कर सकेंगे। ऊर्जा के इन स्रोतों का उपयोग करने के लिए नयी और सस्ती तकनीकियां विकसित करने तथा नयी स्वच्छ कोयला तकनीकियों के विकास के लिए हमें अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में अधिक निवेश करना होगा तथा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग के रास्ते तलाशने होंगे।
3. परमाणु ऊर्जा का महत्व
आधुनिक विज्ञान ने भी स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा के नये स्रोत तलाशने में हमारी मदद की है। यह है-परमाणु ऊर्जा। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने प्रारंभ में ही यह समझ लिया था कि आर्थिक विकास के लिए परमाणु तकनीक में अपार क्षमताएं हैं। खास तौर पर एक विकसित देश के लिए जो कि वर्षों तक गुलाम रहने के कारण तकनीक के क्षेत्र में पिछड़ जाने के बाद अब विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए तत्पर है। भारत का स्वदेशी परमाणु कार्यक्रम ऊर्जा सुरक्षा की चुनौतियों का मुकाबला करने और आत्मनिर्भर बनने तथा तकनीकी तौर पर आत्मनिर्भर बनने के लिए किया गया था।
4. परमाणु ऊर्जा स्वच्छ ऊर्जा भी है
अधिकांश वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि प्रदूषण के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इससे कृषि उत्पादन प्रभावित हो सकता है और हमारी धरती के सभी जीवित प्राणियों को नुकसान पहुंच सकता है। इसलिए, हमें प्रदूषण, जिसके कारण ग्लोबल वार्मिंग हो रही है, को कम करना होगा। इसके लिए पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा स्रोतों-स्वच्छ और हरित ऊर्जा की जरूरत है। जिस किसी भी जरिए से बिजली पैदा की जाए, उससे कुछ कचरा पैदा होता है और उससे पर्यावरणीय अवरोध उत्पन्न होते हैं। इस लिहाज से परमाणु उद्योग अलग है क्योंकि यह बिजली पैदा करने वाला ऐसा एकमात्र उद्योग है जिसने अपने समस्त अवशेषों का निपटान करने की पूरी जिम्मेदारी ले रखी है और जो इस पर आने वाली पूरी लागत को वहन करता है। परमाणु ऊर्जा से ग्लोबल वार्मिंग भी नहीं होती है। इसके अलावा, एक परमाणु बिजली घर की ईंधन की लागत, इसके बराबर के कोयले से चलने वाले बिजली घर की ईंधन की लागत से काफी कम होती है। कई क्षेत्रों में परमाणु संयत्रों से उत्पादित बिजली, कोयले से उत्पादित बिजली से अपेक्षाकृत सस्ती पड़ती है, जबकि रेडियोधर्मी अपशिष्टों के प्रबंधन और निपटान और परमाणु संयंत्रों को बंद करने की भी इसमें व्यवस्था होती है। इसलिए, परमाणु ऊर्जा स्वच्छ और सस्ता ऊर्जा स्रोत होगा। इस समय, परमाणु स्रोतों से भारत की केवल 3 प्रतिशत ऊर्जा जरूरतें ही पूरी हो पाती हैं। भारत की सन् 2020 तक परमाणु क्षेत्र से 20,000 मेगावाट बिजली के उत्पादन की योजना है जो इस समय 3,700 मेगावाट के अपने सबसे निचले स्तर पर है। भारत में विभिन्न स्रोतों से पैदा की जा रही बिजली में परमाणु बिजली की हिस्सेदारी बढ़ने से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटेगी और भारत से कार्बन उत्सर्जन कम होगा। कई देश सक्रियता के साथ परमाणु बिजली विकसित कर रहे हैं। यह विशेष रूप से चीन तथा भारत के हित में है जो बड़ी आबादी वाले देश हैं और जहां की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से विकसित हो रही हैं। कोई भी देश नहीं चाहेगा कि वह एक ही ऊर्जा स्रोत पर निर्भर रहे। इसलिए, यह केवल कोयला, हाइड्रो (जल) अथवा परमाणु बिजली का सवाल नहीं है, बल्कि हमें आने वाले वर्षों में अपनी ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ाने हेतु नवीन स्रोतों की जरूरत है। भारतीय परमाणु वैज्ञानिक विश्व अनुसंधान परियोजनाओं में भी हिस्सा लेना चाहते हैं ताकि हमारे विज्ञान और प्रोद्योगिकी का विकास हो। परमाणु विज्ञान और प्रोद्योगिकी औषधि के क्षेत्र में, इरेडिएशन में और खाद्य भंडारण में बहुत काम आती है। परमाणु ऊर्जा से हम ऊर्जा सुरक्षा और पर्यावरण बचाव की दोहरी चुनौतियों से निपटने में समर्थ होंगे। इससे हमारे सार्वजनिक और निजी उद्योगों के विकास को बहुत ज्यादा बढ़ावा भी मिलेगा। भारत और अमरीका के बीच 123 करार से भारत के खिलाफ लगे तकनीकी प्रदान न करने के उन प्रतिबंधों का अंत होगा जो उस पर तीन दशकों से लगे हुए हैं। इसके साथ ही, इससे भारत को परमाणु बिरादरी से अलग-थलग रखने की व्यवस्था का भी अंत होगा। इसके अलावा, इस करार से भारत के लिए अमरीका तथा शेष विश्व के साथ बराबर के भागीदार के रूप में नागरिक परमाणु सहयोग करने के दरवाजे खुलेंगे।
5. द्विपक्षीय नागरिक परमाणु सहयोग पर भारत-अमरीका करार
भारत को परमाणु ऊर्जा पैदा करने की अपनी क्षमता में तेजी से विस्तार करने के लिए आयातित यूरेनियम की जरूरत है। जुलाई, 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमरीका यात्रा के दौरान दोनों देशों भारत और अमरीका ने नागरिक परमाणु सहयोग फिर से शुरू करने के बारे में चल रही वार्ता को आगे बढ़ाया। यह वार्ता पंडित जवाहरलाल नेहरू के जमाने में शुरू की गई थी लेकिन 1974 में यह पूरी तरह ठप पड़ गई जब भारत ने शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट किया था। राष्ट्रपति जार्ज बुश ने प्रधानमंत्री को बताया था कि वे भारत के साथ पूर्ण नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग को अंजाम देने के लिए काम करेंगे क्योंकि भारत परमाणु बिजली को बढ़ावा देने और ऊर्जा सुरक्षा हासिल करने के अपने लक्ष्यों को समझता है।राष्ट्रपति बुश अमरीकी कानूनों और नीतियों में समायोजन करने के लिए अमरीकी कांग्रेस से सहमति प्राप्त करेंगे तथा अन्तरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं के समायोजन के लिए अमरीका अपने मित्रों और सहयोगियों के साथ काम करेगा ताकि भारत के साथ पूर्ण नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग तथा व्यापार को अंजाम दिया जा सके। जहां तक हमारा संबंध है, हमारी सरकार भी परस्पर आदान-प्रदान के सिद्धांत पर अमरीका जैसे उन्नत परमाणु प्रौद्योगिकी सम्पन्न अग्रणी राष्ट्रों की तरह समान जिम्मेदारियां उठाने और कार्य करने तथा समान लाभ और सुविधाएं प्राप्त करने के लिए सहमत हुई। इसी सिद्धांत पर भारत यह आश्वासन देने पर भी सहमत हुआ कि नागरिक जरूरतों के लिए इस्तेमाल होने वाली परमाणु आपूर्तियों को रणनीतिक कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल में नहीं लाया जाएगा। इसी संकल्पना के आधार पर मार्च, 2006 में राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के दौरान दोनों पक्ष पृथक्करण योजना पर सहमत हुए, जिसके अनुसार भारत सन् 2006 से 2014 तक चरणबद्ध रूप से अपने 22 थर्मल पावर रिएक्टरों में से 14 को चिन्हित करने और उन्हें अन्तरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की सुरक्षा निगरानी के तहत रखने के लिए सहमत हुआ। भारत के साथ इस प्रकार का सहयोग करने के लिए अमरीकी प्रशासन ने अमरीकी कांग्रेस से 1954 के अमरीकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम की धारा 123 में उल्लिखित शर्त से कानूनी छूट दिलाने का अनुरोध किया और उसे प्राप्त किया जिसके लिए नागरिक परमाणु सहयोग की एक शर्त के रूप में पूर्ण सुरक्षा निगरानी जरूरी है। हाइड एक्ट के नाम से एक कानून दिसम्बर, 2006 में अमरीकी कांग्रेस में पारित किया गया था ताकि अमरीकी सरकार भारत के साथ सहयोग कर सके। हाइड एक्ट केवल एक अमरीकी कानून है। यह भारत के लिए बाध्यकारी नहीं है। हमने अमरीका के साथ केवल एक द्विपक्षीय करार किया है जिसे श्श्परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण इस्तेमाल से संबंधित भारत सरकार और अमरीकी सरकार के बीच सहयोग का करारश्श् कहा जाता है। यह करार (प) हमारे रणनीतिक परमाणु कार्यक्रमों की स्वायत्तता, (पप) हमारे स्वदेशी त्रि-स्तरीय परमाणु कार्यक्रम, और (पपप) हमारे अनुसंधान एवं विकास कार्यकलापों की कीमत पर नहीं है। हमारी सरकार इन सभी के प्रति वचनबद्ध है।
6. करार 123 की मुख्य विशेषताएं
1. यह करार हमारी ऊर्जा सुरक्षा में काफी योगदान दे सकता है। भारत के लिए यह बहुत जरूरी है कि यदि हमें गरीबी हटाने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है तो हमें अपनी 8 से 10 प्रतिशत वार्षिक की मौजूदा आर्थिक विकास दर को बनाए रखना होगा। भारत की विकास दर को तेजी से आगे बढ़ाने में ऊर्जा आपूर्ति की कमी प्रमुख बाधाओं में से एक है। हम सभी तरह के ऊर्जा उत्पादनों को इस तरह से बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं कि पर्यावरण संबंधी हमारी चिंताओं का भी ध्यान रखा जा सके। इस संदर्भ में परमाणु ऊर्जा एक तार्किक विकल्प है और यह हमारी समग्र ऊर्जा जरूरत में काफी योगदान दे सकता है। इस समय इसका योगदान केवल 3 प्रतिशत के आस पास ही है। हमारे पास अपनी परमाणु ऊर्जा उत्पादन की क्षमता को सन् 2020 तक 20,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन करने और सन् 2030 तक इसे दोगुना कर देने के लिए एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है। एक तरफ जहां हमारे यूरेनियम संसाधनों के इस्तेमाल से हमारा घरेलू त्रि-स्तरीय कार्यक्रम जारी है, वहीं दूसरी ओर यह करार हमारी क्षमता में तेजी से अतिरिक्त क्षमता जोड़कर हमें जल्दी ही अपने उस लक्ष्य तक पहुंचने में मददगार साबित होगा।
2. यह करार अन्य देशों के साथ नागरिक परमाणु ऊर्जा में सहयोग के लिए भी द्वार खोलता है। हम नागरिक परमाणु ऊर्जा के बारे में इसी तरह के द्विपक्षीय सहयोग करारों के लिए फ्रांस और रूस के साथ भी बातचीत में लगे हैं। परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह के द्वारा अपने दिशानिर्देशों में छूट दिए जाने के साथ ही हमें उम्मीद है कि ये सभी करार अमल में आ जाएंगे।
3. यह करार भारत को अमरीका की ही तरह श्श्उन्नत परमाणु प्रौद्योगिकी सम्पन्न राष्ट्रश्श् की विशेष श्रेणी में रखता है जिसमें दोनों पक्षों को श्श्समान लाभ और हित होंगेश्श्।
4. करार में पूर्ण नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग की व्यवस्था है जिसमें परमाणु संयंत्र और संशोधन तथा प्रसंस्करण सहित परमाणु ईंधन चक्र से जुड़े पहलू शामिल हैं।
5. करार में परमाणु व्यापार, परमाणु सामग्री का अंतरण, उपकरण, पुर्जों और संबंधित प्रौद्योगिकी के हस्तातंरण तथा परमाणु ईंधन चक्र की गतिविधियों में सहयोग की व्यवस्था है।
6. करार में 2 मार्च, 2006 के आपूर्ति के आश्वासनों का तथा लगातार सुरक्षा निगरानी से इसके संबंध एवं ईंधन आपूर्ति के बाधित होने की स्थिति में सुधारात्मक उपाय करने के प्रावधान का पूरा ब्यौरा दिया गया है।
7. करार में भारत के परमाणु संयंत्रों के जीवन-काल के दौरान ईंधन की आपूर्ति बाधित होने से बचने के लिए परमाणु ईंधन का एक सामरिक भंडार विकसित करने की व्यवस्था है।
8. करार में हस्तांतरित सामग्री और उपकरणों पर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की सुरक्षा निगरानी लागू होने की व्यवस्था है। इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें हमारे परमाणु हथियार कार्यक्रम अथवा सुरक्षा निगरानी से इतर किसी परमाणु सुविधा की जांच आवश्यक हो।
9. करार में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि इससे किसी भी पक्ष की सुरक्षा निगरानी से इतर सुविधाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा और इसका कार्यान्वयन इस प्रकार किया जाएगा कि उससे किसी सैन्य परमाणु सुविधा अथवा इस करार से बाहर उत्पादित, अर्जित या विकसित परमाणु सामग्री के रास्ते में कोई बाधा नहीं आएगी अथवा किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।
10.यह करार परमाणु सामग्री के फिर से इस्तेमाल, परमाणु सामग्री और उसके उत्पादों के हस्तातंरण की पूर्व सहमति देता है। इसे अमल में लाने के लिए भारत सुरक्षा निगरानी में रखी गई परमाणु सामग्री का फिर से इस्तेमाल करने के लिए एक राष्ट्रीय पुर्नउपयोग सुविधा (नेशनल रिप्रोसेसिंग फैसिलिटी) स्थापित करेगा। किसी भी पक्ष के अनुरोध पर छः महीने के अंदर व्यवस्थाओं और प्रक्रियाओं पर चर्चाएं शुरू की जाएंगी और इन्हें एक वर्ष के भीतर पूरा कर लिया जाएगा।
11. करार 123 से परमाणु परीक्षण करने के भारत के अधिकार पर किसी भी तरह से असर नहीं पड़ेगा।
7. करार 123 से हमारे परमाणु हथियार कार्यक्रम को कोई नुकसान नहीं होगा।
भारत के परमाणु प्रतिष्ठानों को अभी तक सैन्य और नागरिक कार्यक्रमों में अलग-अलग नहीं किया गया है। इसलिए, 1974 में जब परमाणु परीक्षण किया गया तो इस धारणा के कारण भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाए गए कि इन विस्फोटों में भारत को नागरिक परमाणु ऊर्जा के लिए दिए गए ईंधन का इस्तेमाल किया गया। इसके परिणामस्वरूप, हमारे परमाणु कार्यक्रम के लिए तकनीकी व विखण्डनीय सामग्री एवं उससे संबंधित सहयोग पर रोक लगा दी गई। तारापुर स्थित हमारा प्रथम परमाणु बिजली संयंत्र, जो अमरीकी मदद से बनाया गया था और अमरीकी यूरेनियम की आपूर्ति पर आधारित था, यूरेनियम की आपूर्ति के बगैर पंगु हो गया। यह हमारे त्रि-स्तरीय कार्यक्रम के लिए एक बड़ा झटका था क्योंकि इसने उच्च तकनीकी उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। अमरीका और अन्य देशों से यूरेनियम प्राप्त करने पर रोक लगा दी, परमाणु तकनीक, रिएक्टर्स, रिप्रोसेसिंग आदि के हस्तांतरण पर रोक लगा दी। अमरीका, जापान और कुछ अन्य देशों ने आर्थिक और वित्तीय प्रतिबंध लगा दिए, द्विपक्षीय सहायता से हाथ खींच लिया और विश्व बैंक तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोष जैसी बहुपक्षीय वित्तीय एजेंसियों से सहायता पर प्रतिबंध लगा दिया।
हमारी परमाणु नीति की यह विशेषता रही है कि वह संयमपूर्ण और पारदर्शितायुक्त है। परमाणु अप्रसार संधि और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में शामिल न होने के बावजूद भारत ने परमाणु सामग्री और उससे संबंधित तकनीक पर कारगर निर्यात नियंत्रण बनाए रखा है। भारत अप्रसार तथा कड़े निर्यात नियंत्रण बनाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि हमारे देश में ही विकसित जानकारी और तकनीक अनावृत (लीक) न हो सके। वस्तुतः इस संबंध में भारत का प्रदर्शन परमाणु अप्रसार संधि में शामिल कुछ देशों से भी अच्छा रहा है। भारत ने किसी भी अंतरराष्ट्रीय करार का उल्लंघन नहीं किया है और अप्रसार के मामले में इसकी साफ छवि रही है।
1998 के परमाणु परीक्षण के बाद, सरकार ने अमरीका जैसे देशों के साथ फिर से बातचीत शुरू करने की दिशा में कार्य किया ताकि भारत को परमाणु बिरादरी से अलग-थलग रखने की व्यवस्था का अंत हो सके। उन्नत परमाणु तकनीक से संपन्न राष्ट्र के रूप में भारत अधिकार के साथ अपने आप को सामने ला सके और उच्च तकनीकी क्षेत्रों में व्यापक अंतरराष्ट्रीय सहयोग की दिशा में कार्य कर सके तथा तकनीकी प्रतिबंधों को खत्म करने के उपाय शुरू कर सके। करार 123 का महत्व यह है कि यह हमारे रणनीतिक परमाणु हथियार कार्यक्रम पर बगैर किसी बाधा के हमारे नागरिक परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को विकसित करने की अनुमति देता है। करार 123 भारत को उसके रणनीतिक परमाणु कार्यक्रम, जो पृथक रहेगा, उसके स्वदेशी त्रि-स्तरीय कार्यक्रम और स्वतंत्र परमाणु अनुसंधान और विकास कार्यक्रम को आगे बढ़ने से नहीं रोकता है।
8. नागरिक परमाणु सहयोग पर भारत-अमरीकी करार के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्नः क्या करार 123 हमारी स्वतंत्र विदेश नीति के संचालन की क्षमता को प्रभावित करता है?
उत्तरः हमारे प्रधानमंत्री जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि हमारी विदेश नीति केवल हमारे राष्ट्रीय हितों के आधार पर तैयार की जाती है और भारत के किसी भी विदेशी कानून से बंधे होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। सरकार उस स्वतंत्र विदेश नीति के अनुसरण के लिए प्रतिबद्ध है जो कि हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की धरोहर है।
हमारी विदेश नीति पूरी तरह से हमारे राष्ट्रीय हित के अनुसार ही संचालित की जाएगी और यह करार किसी भी तरह से हमारी स्वतंत्र विदेश नीति के संचालन की हमारी क्षमता को प्रभावित नहीं करता है। करार 123 दो बराबर के साझेदारों के बीच स्वेच्छा से किया गया एक करार है। इसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि भारत और अमरीका दोनों ही देश एक दूसरे की सार्वभौमिकता के प्रति परस्पर सम्मान के आधार पर एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किए बिना नागरिक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाना चाहते हैं। दरअसल, यह करार भारत की ऊर्जा सुरक्षा में योगदान करके हमारी स्वतंत्र विदेश नीति और हमारी आत्मनिर्भरता को जारी रखने की हमारी क्षमता को बढ़ाएगा।
प्रश्नः क्या करार 123 भारत के रणनीतिक कार्यक्रम को प्रभावित करेगा?
उत्तरः जी, नहीं। जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने 13 अगस्त, 2007 को संसद में बताया है, यह करार नागरिक परमाणु सहयोग के बारे में है। करार में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो भारत को भावी परमाणु सुविधाएं, चाहे वे नागरिक सुविधाएं हों अथवा सैन्य सुविधाएं, बढ़ाने के उसके अधिकार को सीमित करे। दूसरी तरफ इस करार में एक अनुच्छेद यह भी शामिल है जिसमें स्पष्ट रूप से यह सुनिश्चित किया गया है कि यह करार किसी भी ऐसे तरीके से न तो परिभाषित अथवा कार्यान्वित किया जाएगा जो हमारे स्वतंत्र और सैन्य परमाणु कार्यकलापों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले। इस तरह यह करार भारत की मौजूदा और भावी रणनीतिक जरूरतों के लिए विखण्डनीय सामग्री का उत्पादन करने और उसका इस्तेमाल करने की भारत की क्षमता को किसी भी तरह से प्रभावित नहीं करता है।
प्रश्नः क्या यह करार परमाणु विस्फोट परीक्षण करने के हमारे अधिकार को प्रभावित करता है?
उत्तरः जी, नहीं। प्रधानमंत्री जी ने 13 अगस्त को संसद में बताया है कि यह करार भावी परमाणु परीक्षण को, यदि ऐसा करना भारत के राष्ट्रीय हित में आवश्यक हो तो, करने के भारत के अधिकार को किसी भी तरह प्रभावित नहीं करता है। भावी परमाणु परीक्षण करने का निर्णय हमारा सम्प्रभु निर्णय होगा जो कि पूरी तरह से उस समय की सरकार के अधिकार में होगा। इस करार में ऐसा कुछ नहीं है जो भविष्य की सरकार के हाथ बांध दे अथवा भारत की सुरक्षा और रक्षा जरूरतों को सुरक्षित रखने के उसके विकल्पों को कानूनी तौर पर सीमित कर दे।प्रश्नः क्या यह करार हमारे स्वदेशी त्रिस्तरीय परमाणु कार्यक्रम पर किसी तरह से प्रतिकूल प्रभाव डालेगा?
उत्तरः हमारे त्रिस्तरीय परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार पूरी तरह से सुरक्षित हैं। यह करार हमारे अपने उद्देश्यों के लिए हमारी स्वतंत्र और देश में विकसित परमाणु सुविधाओं के इस्तेमाल के हमारे अधिकार को पूरी तरह सुरक्षित रखता है। इस करार के अनुसार हम अपने कार्यकलापों, जिनमें हमारी अपनी जरूरतों के लिए परमाणु सामग्री, गैर-परमाणु सामग्री, संयंत्रों संगटकों, सूचना अथवा प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल तथा देश में ही निर्मित, अधिगृहीत अथवा विकसित सैन्य परमाणु सुविधाओं का इस्तेमाल शामिल है, को निर्बाध रूप से बिना किसी हस्तक्षेप के जारी रख सकते हैं। हमारे त्रिस्तरीय परमाणु कार्यक्रम में भविष्य के लिए अनंत संभावनाएं हैं। तथापि थोरियम आधारित तकनीक, जो कि तीसरे चरण का आधार होगी, के त्वरित कार्यान्वयन के बाद, समय के साथ यह आर्थिक रूप से व्यावहारिक बन जाएगी। चूंकि हमारी यूरेनियम आपूर्तियां काफी कम हैं इसलिए हमें इसे अन्यत्र से हासिल करने की जरूरत है। हालांकि हमारे यूरेनियम संसाधनों के इस्तेमाल से चल रहा हमारा त्रिस्तरीय कार्यक्रम जारी है तथापि यह करार हमारे लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग के द्वार खोलता है इससे हमें परमाणु ऊर्जा का अंश बढ़ाने में सहायता मिलेगी। स्वदेशी सुविधाओं को आयातित सुविधाओं से अलग करके हमारे कार्यक्रम आगे बढ़ते रहेंगे।
प्रश्नः क्या यह करार सुरक्षा निगरानी वाले रिएक्टरों के लिए ईंधन आपूर्ति का आश्वासन देता है?
उत्तरः इस करार में भारत के रिएक्टरों के पूरे जीवन काल के लिए आपूर्ति में किसी भी व्यवधान के विरूद्ध सुरक्षा के लिए परमाणु ईंधन के एक रणनीतिक भंडार विकसित करने के भारत के प्रयास के लिए अमरीकी सहयोग का प्रावधान है। यह मार्च 2006 के पृथक्करण योजना के प्रावधानों के अनुसार है। अमरीका इस बात पर भी सहमत है कि यदि कभी ईंधन आपूर्ति में व्यवधान उत्पन्न होता है तो वह रूस, फ्रांस और ब्रिटेन को साथ लेकर हमारे साथ मित्र आपूर्तिकर्ता देशों का एक समूह बनाएगा जो ऐसे उपाय करेगा जिससे कि भारत के लिए ईंधन आपूर्ति बहाल हो सके। विदेशी परमाणु ईंधन की आपूर्ति में व्यवधान आने की स्थिति में भारत के पास सुधारात्मक उपाय करने का उसका अधिकार सुरक्षित है।
प्रश्नः इस करार में यह कहा गया है कि इसे दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने राष्ट्रीय कानूनों और विनियमों के अनुसार लागू किया जाएगा। हाइड यभ्लकमद्ध अधिनियम उन कानूनों में से एक है जिनका अनुपालन करने की जरूरत अमरीका को इस करार को लागू करने में पड़ेगी। फिर वह अपने आश्वासनों को कैसे पूरा करेगा?
उत्तरः जहां तक भारत का संबंध है, हम केवल करार 123 की शर्तों और विनियमों के प्रति वचनबद्ध हैं। करार 123 में कहीं भी हाइड यभ्लकमद्ध अधिनियम का उल्लेख नहीं है। करार 123 में उस हाइड यभ्लकमद्ध अधिनियम का कोई प्रावधान नहीं है जो हमारे दृष्टिकोण से अवांछित है। हाइड एक्ट वह सामर्थ्य प्रदान करने वाला विधान है जो अमरीकी प्रशासन को भारत के साथ द्विपक्षीय परमाणु सहयोग करार पर बातचीत करने की अनुमति देता है। इसमें अमरीकी और भारतीय विदेश नीति पर कतिपय भिन्न प्रावधान और प्रतिबद्धताएं निहित हैं जिस पर हमारे विदेश मंत्री ने 12 दिसंबर, 2006 को संसद में दिए गए अपने वक्तव्य में टिप्पणी की थी श्श्हमने हमेशा यह ध्यान रखा है कि विदेश नीति संचालन का निर्धारण पूरी तरह से अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर करना हमारा अपना अधिकार है। हमने यह भी साफ कर दिया है कि हमारे रणनीतिक कार्यक्रम इन वार्तालापों की परिधि के बाहर रहेंगे। हम रणनीतिक कार्यक्रम में बाहरी जांच अथवा हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देंगे।श्श्
अमरीकी प्रशासन ने स्पष्ट रूप से यह आश्वासन दिया है कि हाइड एक्ट उसे 18 जुलाई और 2 मार्च के वक्तव्यों में भारत के प्रति की गई सभी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में सक्षम बनाता है। राष्ट्रपति बुश ने भी 18 दिसंबर, 2006 को इस अधिनियम पर हस्ताक्षर करते वक्त यह स्पष्ट कर दिया है कि वह हाइड एक्ट के कतिपय प्रावधानों को केवल परामर्शी समझेंगे।
प्रश्नः इस करार को संसद के अनुमोदन की आवश्यकता क्यों नहीं है?
उत्तरः भारत हमारे संविधान में उल्लिखित संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली पर चलता है जिसमें संधि करने की शक्ति कार्यपालिका के पास होती है। विगत में भी किसी भी द्विपक्षीय संधि और करार का अनुमोदन संसद द्वारा कभी नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, एनडीए सरकार ने जनवरी, 2004 में अमरीका के साथ श्श्रणनीतिक साझेदारी में अगले कदमश्श् नामक एक करार किया था लेकिन इसे कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया। यहां तक 1971 भारत-सोवियत संघ मैत्री संधि जैसी बड़ी संधि संसद के समक्ष नहीं लाई गई। इसके बावजूद, यह सरकार अमरीका के साथ हमारे वार्तालाप के विभिन्न चरणों की पूरी जानकारी संसद को देती आई है।
प्रश्नः क्या इसका अर्थ यह है कि भारत को व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सी.टी.बी.टी.) अथवा विखण्डनीय सामग्री कटौती संधि (एफ.एम.सी.टी.) पर हस्ताक्षर करने ही होंगे?
उत्तरः यह करार भारत को सी.टी.बी.टी.ध्एफ.एम.सी.टी. पर हस्ताक्षर करने को बाध्य नहीं करता है। तथापि, हम परमाणु परीक्षण पर एक स्वैच्छिक, एकतरफा रोक के प्रति वचनबद्ध है। हम निःशस्त्रीकरण सम्मेलन में एफ.एम.सी.टी. के लिए बातचीत करने के प्रति भी प्रतिबद्ध हैं। भारत केवल एक भेदभाव रहित, बहुपक्षीय बातचीत द्वारा तय की गई और अंतरराष्ट्रीय रूप से सत्यापित एफ.एम.टी.सी. में शामिल होने की इच्छा रखता है, बशर्ते यह हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा हितों के अनुकूल हो।
प्रश्न- ईरान के प्रति भारत का क्या रूख रहेगा?
उत्तरः यह 123 करार परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग हेतु सहयोग के संबंध में है। किसी भी भिन्न विषय अथवा अन्य देशों के साथ भारत के संबंध से इसका कोई लेना देना नहीं है।
प्रश्नः क्या किसी अन्य मुद्दे जैसे कि भारत द्वारा विमानों की खरीद से इसका संबंध है?
उत्तरः भारत की किसी भी भिन्न प्रतिबद्धता अथवा दायित्व से इस करार का कोई संबंध नहीं है।
प्रश्नः क्या संसद के प्रति प्रधानमंत्री जी की प्रतिबद्धता पूरी की गई है?
उत्तरः 17 अगस्त, 2006 को राज्य सभा में दिए गए वक्तव्य सहित प्रधानमंत्री द्वारा संसद के प्रति की गई प्रतिबद्धताओं का पूरी तरह से पालन किया गया है।
प्रश्नः हमारे स्वतंत्र त्रिस्तरीय परमाणु शक्ति कार्यक्रम का क्या होगा?
उत्तरः भारत का स्वदेशी त्रिस्तरीय परमाणु कार्यक्रम इस करार से प्रभावित नहीं होगा। इसकी पूर्ण स्वायत्तता सुरक्षित की गई है।
प्रश्नः क्या इस करार का अर्थ यह है कि भारत को अपने परमाणु हथियार कार्यक्रम को छोड़ देना होगा?
उत्तरः यह करार भारत के परमाणु हथियार कार्यक्रम को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करता है। एक जिम्मेदार परमाणु सम्पन्न राष्ट्र के रूप मे, भारत परमाणु परीक्षण पर अपनी स्वैच्छिक एकतरफा रोक, विश्वसनीय न्यूनतम निवारण और पहले प्रयोग न करने की अपनी नीतियों पर चलता रहेगा। ये नीतियां तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की एनडीए सरकार द्वारा घोषित की गई थीं।
नागरिकों की मांग भारत परमाणु कार्यक्रम बंद हो
लोगों में जापान में हुई परमाणु त्रासदी पर संवेदना जगाने, जापान के लोगों के साथ सहानुभूति व्यक्त करने, और भारत के परमाणु कार्यक्रम को बंद करने के लिये लखनऊ में आज पी.एम.टी कॉलेज, हजरतगंज में परिचर्चा और परिवर्तन चौक पर मोमबत्ती प्रदर्शन आयोजित किया गया.
जापान में हुई परमाणु आपात स्थिति के बाद तो इस बात पर किसी संदेह का प्रश्न ही नहीं उठता है कि दुनिया में सभी परमाणु कार्यक्रमों को, चाहे वो सैन्य या उर्जा के लिये हों, उनको जितनी जल्दी संभव हो उतनी जल्दी बंद करना होगा. इन परमाणु ऊर्जा-घरों में दुर्घटनाओं और सैन्य हमले (हिरोशिमा-नागासाकी पर अटम बम) की वजह से मानवजाति ने सिर्फ अपूर्व, भयानक और अदम्य त्रासदी ही देखी है, जिसको असंख्य प्रभावित लोगों ने सदियों तक झेला है. यह तो स्पष्ट है कि परमाणु शक्ति चाहे वो ऊर्जा बनाने में लगे अथवा बम, यह सबसे खतरनाक विकल्प है. इसमें कोई शक नहीं कि समय रहते बिना विलम्ब दुनिया में परमाणु निशस्त्रीकरण हो जाना चाहिए जिससे कि सुरक्षा, ऊर्जा पूर्ति या तकनीकि विकास के नाम पर भयावही परमाणु हादसे मानव जाति को अब और न झेलने पड़ें.
हमारी मांग है कि भारत-अमरीका परमाणु समझौता और अन्य परमाणु कार्यक्रमों को भी मानवता और विश्व शान्ति के लिये तुरंत बंद किया जाए.
हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए अटम बम हमले, जो इतिहास के सबसे वीभत्स त्रासदी रहे हैं, के ६५ साल के बाद भी जिस देश ने इन हमलों को अंजाम दिया था, आज तक उस देश अमरीका ने माफी नहीं मांगी है. जिस उत्साह के साथ भारत, भारत-अमरीका परमाणु समझौते को लागू कर रहा है, यह अत्यंत चिंता का विषय है.
पर्यावरण के लिए लाभकारी तरीकों से उर्जा बनाने के बजाय भारत परमाणु जैसे अत्यंत खतरनाक और नुकसानदायक ऊर्जा उत्पन्न करने के तरीकों को अपना रहा है. विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा एक असफल प्रयास रहा है. विश्व में अभी तक परमाणु कचरे को नष्ट करने का सुरक्षित विकल्प नही मिल पाया है, और यह एक बड़ा कारण है कि विकसित देशों में परमाणु ऊर्जा के प्रोजेक्ट ठंडे पड़े हुए हैं. भारत सरकार क्यों भारत-अमरीका परमाणु समझौते को इतनी अति-विशिष्ठ प्राथमिकता दे रही है और इरान-पाकिस्तान-भारत तक की गैस पाइपलाइन को नकार रही है, यह समझ के बाहर है.
किसी भी देश क लिए ऊर्जा सुरक्षा के मायने यह हैं कि वर्तमान और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लोग ऊर्जा से लाभान्वित हो सकें, पर्यावरण पर कोई कु-प्रभाव न पड़े, और यह तरीका स्थायी हो, न कि लघुकालीन. इस तरह की ऊर्जा नीति अनेकों वैकल्पिक ऊर्जा का मिश्रण हो सकती है जैसे कि, सूर्य ऊर्जा, पवन ऊर्जा, छोटे पानी के बाँध आदि, गोबर गैस इत्यादि.
जापान ने कभी भी परमाणु बम नहीं बनाया पर परमाणु शक्ति का ऊर्जा के लिये इस्तेमाल किया था. परमाणु ऊर्जा भी कितनी खतरनाक हो सकती है यह जापान में हुए परमाणु आपात स्थिति से आँका जा सकता है. भारत में न केवल अनेकों परमाणु ऊर्जा-घर हैं बल्कि परमाणु बम भी है - और दुनिया में सबसे अधिक संख्या में गरीब लोग हैं. न केवल परमाणु शक्ति अत्यंत खतरनाक विकल्प है, भारत जैसे देशों के लिये परमाणु शक्ति में निवेश करना, लोगों की मूल-भूत आवश्यकताओं को नजरंदाज करके श्सुरक्षाश्, श्ऊर्जाश् के नाम पर ऐसा समझौता करने जैसा है जिसके कारणवश लोग कई गुना अधिक मार झेल रहे हैं.
भारत में शायद ही कोई ऐसा परमाणु ऊर्जा घर हो जहां कोई न कोई दुर्घटना न हुई हो. जिन स्थानों पर भारत में परमाणु कचरे को डाला जाता है, जहां परमाणु ऊर्जा घर लगे हुए हैं, जहां परमाणु खान हैं, आदि, वहाँ पर रहने वाली आबादी रेडियोधर्मिता का भीषण कुप्रभाव झेल रही है. उदाहरण के तौर पर कुछ महीने पहले ही कईगा परमाणु केंद्र में ५० से अधिक लोग रेडियोधर्मी त्रिशियम का प्रकोप झेले थे.
परमाणु दुर्घटनाओं की त्रासदी संभवतरू कई पीढ़ियों को झेलनी पड़ती है जैसे कि भोपाल गैस काण्ड और हिरोशिमा नागासाकी त्रसिदियों को लोगों ने इतने बरस तक झेला. हमारी मांग है कि भारत बिना-देरी शांति के प्रति सच्ची आस्था का परिचय दे और सभी परमाणु कार्यक्रमों को बंद करे. ------एस.आर.दारापुरी, अरुंधती धुरु, रंजित भार्गव, प्रो० रंजित भार्गव, प्रो० एम.सी.पन्त, प्रो० रमा कान्त, डॉ० संदीप पाण्डेय, आनंद त्रिपाठी, एवं अन्य नागरिक,
परमाणु निशस्त्रीकरण और शांति के लिये गठबंधन, शांति एवं लोकतंत्र के लिये लखनऊ चिकित्सकों का समूह, जन-आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, आशा परिवार एवं लोक राजनीति मंच के संयुक्त तत्वावधान मे आयोजित
भारत में परमाणु ऊर्जा की आवश्यकता
इल उंता तंप 6रू38 च्ड, नदकमत
परमाणु ऊर्जा फ्रॉस की अरेवा कंपनी द्वारा महाराष्ट्र के जैतपुर में १६५० मेगावाट की दो नाभिकीय रिएक्टर स्थापित किया जायेगा .यह एक अच्छी खबर है .पर्यावरण मंत्रालय ने भी कुछ शर्तों के साथ इसकी स्थापना की इजाजत दे दिया है .भारत को इस वक्त उर्जा की बहुत जरुरत है ,पेट्रोलियम के भण्डार यहाँ पर बहुत ही सीमित है तथा यह अपनी आवश्यकता का ७५ प्रतिशत से अधिक पेट्रोलियम आयात करता है .साथ ही कोयला के भण्डार भी सीमित ही है जो आगे आने वाले ४० -५० वर्षों में समाप्त हो जायेंगे .इस प्रकार भारत के पास बहुत सीमित विकल्प है जिसमे परमाणु ऊर्जा भी एक महत्वपूर्ण विकल्प के रूप में स्थापित हो सकता है .परमाणु ऊर्जा को स्वेत इंधन कहा जाता है क्योंकि इससे पर्यावरण को नुक्सान नहीं होता है .भारत के पास पनबिजली ,सौर्य उर्जा ,पवन उर्जा का भी विकल्प है और भारत सरकार के अंग उसके विकास के लिए काम भी कर रहे है .दिक्कत की बात यह है की ये सभी स्रोत मिलकर भी ऊर्जा संकट को दूर नहीं कर सकते और इनके विकास की गति भी धीमी है .कोयले के प्रयोग से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी होता है जिससे ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या सामने आ रही है .परमाणु ऊर्जा के उपयोग से इसका समाधान हो सकता है .इससे कोयले और पेट्रोलियम पर हमारी निर्भरता भी कम होगी और विदेशी मुद्रा की बचत भी हो सकेगी .
परमाणु ऊर्जा की सबसे बड़ी समस्या इसकी सुरक्षा को लेकर है .परमाणु दुर्घटना होने पर लाखो लोगो की जाने जा सकती है और साथ ही साथ रेडिओ एक्टिव किरणों के वायुमंडल में विखरने के कारण भावी पीढी को भी इसका दंश भुगतना पड़ेगा .दुर्घटना के बाद मुआवजा राशि कितनी होगी,इसको लेकर भी विवाद बना हुआ है .अभी हाल ही में भारतीय संसद द्वारा परमाणु दुर्धटना मुआवजा आपूर्ति विधेयक पारित किया गया है .इन सभी समस्याओं का समाधान खोज कर परमाणु ऊर्जा को एक वेहतर विकल्प के रूप में तैयार किया जा सकता है .इसी सन्दर्भ में फ्रांस के साथ हुआ परमाणु समझौता काफी महत्वपूर्ण है ,इससे निश्चित रूप से भारत में ऊर्जा संकट के समाधान में कुछ मदद मिलेगी .भारत में अभी परमाणु ऊर्जा का कुल उत्पादन ४७२० मेगावाट है ..इसे द्रुत गति से
अब परमाणु ऊर्जा का क्या होगा?
जापान मे जो हुआ उससे पूरी दुनिया की धड़कनें तेज कर दी हैं. सबसे सस्ती कहकर अपनाई जानेवाली परमाणु ऊर्जा को लेकर उत्साहित सारे देशों को कहीं न कहीं ये सोचने पर मजबूर कर दिया है की परमाणु ऊर्जा सस्ती तो है लेकिन क्या सुरक्षित है. खासकर जब कोई बड़ी नैसर्गिक आपदा का सामना हो. रिक्टर स्केल पर 8.9 तीव्रता के शक्तिशाली भूकंप ने जब जपान को हिला दिया तब फुकुशिमा ऊर्जा प्रोजेक्ट के रिएक्टर्स की बिजली गुल हो गई. ऐसी स्थिती में जनरेटर और बैटरी से रिएक्टर को होनेवाली बिजली की आपूर्ति को जारी रखा जा सकता है. लेकिन जापान में ये व्यवस्था चल नहीं पाई. कोई भी उपाय नहीं चल पाने की वजह से रिएक्टर्स में तापमान बढ़ता गया. जब बढ़ते तापमान पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया तब रिएक्टर में विस्फोट हुआ. जिसके बाद जापान और आसपास अब रेडिएशन का खतरा बढ़ता जा रहा है. वैसे भी परमाणु प्रोजेक्ट्स को हमेशा खतरे की नजर से देखा जाता है. लेकिन जो जापान में हुआ है उसके बाद से अब लगता है खतरे की घंटी बज गई है. जापान के फुकुशिमा के ये रिएक्टर्स श्दाई इचिश् कंपनी के लिये अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी ने बनाये थे. फिलहाल अमेरिका में जनरल इलेक्ट्रिक के बनाये 23 परमाणु रिएक्टर्स परमाणु ऊर्जा प्रोजेक्ट मे लगाये गये है. जाहिर है जापान में जो हुआ उससे अमेरिका मे भी टेन्शन बढ़ने लगा है. कई अमेरिकी सिनेटर परमाणु ऊर्जा पर दोबारा विचार करने की बात करने लगे हैं. कई पर्यावरणवादी यही मुद्दा अब और जोरशोर से उठाए हुए हैं. फिलहाल यूरोप में भी परमाणु ऊर्जा को लेकर खास उत्साह दिखाई दे रहा है. दुनिया में बनने वाली कुल बिजली में से केवल 15 प्रतिशत बिजली 442 परमाणु रिएक्टर्स में तैयार होती है. इस वक्त और करिब 150 रिएक्टर्स बनाने का काम चल रहा है. इसमें से ज्यादातर प्रोजेक्ट थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज यानी विकासशील देशों में बन रहे हैं. चीन में अलग-अलग प्रोजेक्ट मे 13 परमाणु रिएक्टर्स हैं जबकी भारत में 20. अब एनपीसीसीआईएल सभी रिएक्टर्स को दोबारा जांचने की बात कर रहा है जो होना जरूरी है. वहीं महाराष्ट्र में बनने वाले जैतापुर प्रोजेक्ट के रिएक्टर्स के डिजाईन भी जापान की घटना को ध्यान मे लेकर बनाने का वादा किया जा रहा है. वहीं भारत मे परमाणु ऊर्जा के समर्थकों ने भी कमर कस ली है. परमाणु ऊर्जा आयोग के पुर्व अध्यक्ष अनिल काकोदकर ने महाराष्ट्र विधान सभा मे विधायकों के लिये एक खास लेक्चर दिया. हालांकी इस लेक्चर के दौरान खुद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और कई विधायक झपकी लेते और उबासियां भरते नजर आये लेकिन काकोदकर ने आश्वस्त करने की कोशिश की कि भारत खासकर जैतापुर और फुकुशिमा की नैसर्गिक स्थितियों में जमीन आसमान का फर्क है. साथ ही जैतापुर मे परमाणु रिएक्टर लगाते समय जापान में हुई घटना को ध्यान में रखकर प्रोजेकट डिजाइन्स तैयार किये जायेंगे और अगर विकास चाहिये तो ऊर्जा चाहिये. ऊर्जा के लिये तेल, कोयला से बिजली बनाने वाले प्रोजेक्ट पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं ऐसे में परमाणु ऊर्जा ही एक मात्र संसाधन उपल्बध है. हालंकी उन्होंने भी माना की सारी सुरक्षा को ध्यान में रखा जाना जरूरी है. वहीं सरकार भी जापान में हुई घटना के बावजुद अपना मन बना चुकी है कि परमाणु ऊर्जा का फिलहाल कोई विकल्प नही है. लेकिन इस स्थिती मे जनता को समझा बुझाकर ही ऐसे प्रोजेक्ट बनाये जा सकते हैं ये उन्हें भूलना नहीं चाहिये.
लेकिन इससे ज्यादा सरकार को चिंता निवेशकों की हो सकती है. परमाणु ऊर्जा के बढ़ते चलन को देखते हुए इस क्षेत्र मे निवेश के लिये आगे आने वाले निवेशकों के मन में भी खलबली मच गई है. फुकुशिमा की घटना के बाद इस क्षेत्र से जुडी कंपनीयों के शेयर के भाव इसका प्रतिक हैं. ये चिंता इतनी आसानी से मिटनेवाली नहीं, ये बात तो तय है. ऐसे में भारत सरकार ने सन 2032 तक परमाणु ऊर्जा के जरिए बिजली उत्पादन 64000 मेगावाट करने का जो लक्ष्य रखा उसका क्या होगा ये देखनेवाली बात होगी.
मार्च 18, 2011 लेखक साहिल जोशी
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