Thursday 28 October 2010

परमाणु करार ...एक और कदम

भारत-अमरीका के बीच हुए असैन्य परमाणु करार को लागू करने की राह में भारत अब एक और कदम अपनी ओर से आगे बढ़ गया है। मई में हुए ग्रीष्मकालीन सत्र में सरकार ने विवादित परमाणु दायित्व विधेयक लोकसभा में पेश किया था, तब भाजपा समेत अन्य विपक्षी दलों के हंगामे, वाकआउट के कारण बात आगे नहींबढ़ पायी थी। इसके पहले मार्च में जब यह कोशिश की गयी तो यूपीए के समर्थक राजद व सपा के विरोध के कारण यह विधेयक आगे नहींलाया जा सका। मई तक राजद व सपा को सरकार ने मना लिया और अब अगस्त में भाजपा
भी उसके साथ आ गयी है। मनमोहन सिंह सरकार की यह बड़ी राजनीतिक विजय मानी जाएगी। बुधवार को भारी हंगामे के बावजूद परमाणु जवाबदेही विधेयक पर स्थायी समिति की रिपोर्ट लोकसभा व राज्यसभा में पेश कर दी गयी। सरकार की कोशिश है कि नवम्बर में बराक ओबामा की प्रस्तावित भारत यात्रा के पहले यह विधेयक पारित हो जाए। ताकि उनके सामने कुछ कहने की स्थिति रहे। नवम्बर के पहले संसद का यह आखिरी सत्र है। इसलिए सरकार ने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। वामदल अब भी अपने विरोध पर कायम हैं, किंतु भाजपा किंचित संशोधनों पर सरकार का साथ देने पर राजी हो गयी है। परमाणु दुर्घटना की स्थिति में सरकार ने मुआवजे की राशि पहले मात्र 5 सौ करोड़ रखी थी, अब भाजपा के दबाव में इसे तिगुना यानि 15 सौ करोड़ कर दिया गया है। जबकि वामदल इसे 10 हजार करोड़ चाहते थे। 10 हजार करोड़ की राशि सुनने में बहुत ज्यादा लगती है। लेकिन जब इतने ज्यादा मुआवजे का भय रहेगा तो संयंत्र लगाने वाली कंपनी अपनी ओर से अतिरिक्त सतर्कता बरतेगी ताकि दुर्घटना की आशंका बिल्कुल ही न रहे। 5 सौ या 15 सौ करोड़ अरबों का मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के लिए कोई मायने ही नहींरखते हैं। जब भोपाल जैसी घटनाओं के हम भुक्तभोगी हैं, उसके बाद इंसानी जिंदगी का इतना सस्ता सौदा करते क्या सरकार ने इतिहास से कोई सबक नहींलिया? सरकार ने विपक्ष की यह बात भी मान ली है कि परमाणु संयंत्र सरकार या सरकारी कंपनियां ही लगाएंगी, निजी कंपनियां इसे स्थापित नहींकरेंगी। यह शर्त फिलहाल राहत देती है, किंतु निश्ंचित होने की इजाज़त नहीं। पिछले दरवाजे से कब पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) का तमगा लगाकर या घाटे में चलने का बहाना बनाकर परमाणु संयंत्रों को निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा, इसकी भनक भी नहींलगेगी। लाख विरोध के बावजूद बाल्को को बेच दिया गया, कई सरकारी प्रतिष्ठानों के शीर्षस्थ पदाधिकारी जल्द सेवानिवृत्ति लेकर निजी कंपनियों की शोभा बढ़ाने लगे, वरिष्ठ नौकरशाह निजी कंपनियों के बोर्ड में सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद शामिल हो गए, यह सब खेल जिस व्यवस्था में भीतर-भीतर निर्बाध चल रहा हो, वहां सरकारी कथन पर कितना भरोसा किया जाए।
अमरीका से परमाणु करार देश से ज्यादा डा.मनमोहन सिंह के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। कोई आश्चर्य नहींकि इसे लागू करवाने में सरकार इतनी तत्परता अमीरीकी दबाव में दिखा रही है। ऊर्जा के क्षेत्र में देश को संपन्न बनाने के लिए परमाणु करार जरूरी है, यह तर्क बेहद खोखला है। 60-70 के दशक में नाभिकीय ऊर्जा भले प्रगति का द्योतक मान ली गयी थी, 80 का दशक आते-आते उसकी व्यर्थता, महंगाई समझ में आ गयी थी। भारत के साथ दिक्कत यह है कि जिस चीज को पश्चिम इस्तेमाल करके, परख के नकार देता है उसे खपाने के लिए 10 साल बाद ही सही भारत उपयुक्त बाजार बन जाता है। फैशन, पेय पदार्थ, खाद्य वस्तुओं से लेकर परमाणु उर्जा तक में यह बात एक सी लागू होती है। असैन्य परमाणु करार के बहाने अमरीका को भारत के अंदरूनी मामलों में दखल देने का पहले से कहींअधिक अधिकार प्राप्त हो जाएगा। परमाणु ऊर्जा, रिएक्टरों की स्थापना, उनके रखरखाव आदि के लिए भारत बहुत तरह से अमरीका और उसके सहयोगी देशों पर निर्भर हो जाएगा। इससे प्राप्त होने वाली बिजली देश को रौशन करने की बजाए परनिर्भरता के अंधेरे में धकेलेगी। वैज्ञानिक रूप से भी यह पुष्ट हो चुका है कि नाभिकीय बिजली प्राप्त करना महंगा है, जबकि सौर ऊर्जा का दोहन इससे कहींकम लागत में किया जा सकता है। सूरज पर कोई अमरीका होता तो अब तक भारत उसकी ऊर्जा लेने के लिए कमर कस चुका होता। बहरहाल भाजपा को अपने साथ सरकार ने कर लिया या कहें कि अमरीका ने दो विरोधियों को मिला दिया। देश को इस साथ से क्या हासिल होगा, यह देखने की बात होगी।
deshbandhu

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