Thursday, 28 October 2010

तर्को से परे वाम दल

असैन्य परमाणु समझौते पर मतभेद दूर करने के लिए गठित समिति की दूसरी बैठक में भी कोई नतीजा न निकलने पर आश्चर्य नहीं। संभवत: इस समिति की आगामी बैठकें भी परिणाम विहीन रहेंगी, क्योंकि वाम दल तो यह ठान चुके हैं कि उन्हें इस समझौते पर अपनी हठधर्मिता का परित्याग किसी भी मूल्य पर नहीं करना है। इस मामले में वाम दल तर्क का जवाब तर्क से देने के लिए भी नहीं तैयार। उन्होंने साफ कहा कि उन्हे इस करार पर सरकार की कोई एक दली
ल भी समझ में नहीं आ रही। उन्हें इस पर भी आपत्तिहै कि केंद्र सरकार ने सुलह समिति में चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसे वकील हैं। क्या वे यह चाहते थे कि इस समिति में उनकी हर बात को जायज ठहराने वाले लोग शामिल किए जाते? परमाणु करार पर वाम दल अपनी मनमानी संप्रग सरकार और देश पर थोपना चाहते हैं, इसका प्रमाण माकपा महासचिव प्रकाश करात ने विगत दिवस संसद के सामने एक रैली को संबोधित करते हुए फिर दिया। इस रैली में उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट कहा कि हम सरकार को परमाणु करार से दूर रहने के लिए तीन-चार सप्ताह और समझाएंगे और यदि वह फिर भी नहीं समझी तो उसे राजनीतिक संकट का सामना करना होगा। ऐसी भाषा का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि करार पर मतभेद दूर करने के लिए गठित की गई समिति व्यर्थ का कवायद है। यह शायद समय बिताने के लिए करना है कुछ काम.. के उद्देश्य से गठित की गई है, लेकिन भारत सरकार को यह अहसास होना ही चाहिए कि परमाणु करार पर आगे बढ़ने का समय तेजी से बीत रहा है। वह हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकती?
   यद्यपि केंद्र सरकार के कुछ नेताओं ने वाम दलों के नेताओं को कुछ-कुछ उन्हीं की भाषा में जवाब देना शुरू कर दिया है, लेकिन शायद अब देर हो चुकी है। आज यदि वाम दल खुद को केंद्रीय सत्ता का संचालक समझने लगे हैं और उसी तरह से व्यवहार भी कर रहे हैं तो इसके लिए एक बड़ी हद तक संप्रग सरकार और उसका नेतृत्व कर रही कांग्रेस जिम्मेदार है। यदि केंद्र सरकार ने वाम दलों की प्रत्येक मांग के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं किया होता तो आज जो स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था। यह केंद्रीय सत्ता ही है जिसने उन्हे जरूरत से ज्यादा महत्ता प्रदान कर देश-दुनिया को यह संदेश दिया कि वह वाम दलों की अनुचित मांगों का प्रतिकार नहीं कर सकती। इसके दुष्परिणाम सामने आने ही थे। वाम दलों का जनाधारहीन नेतृत्व अपने दुराग्रहों के साथ परमाणु करार पर इतना आगे निकल चुका है कि अब उसके लिए पीछे लौटना मुश्किल नजर आ रहा है। इसमें संदेह है कि उसे सद्बुद्धि आएगी अथवा वह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य की तरह से परमाणु ऊर्जा के महत्व को समझ सकेगा। चूंकि स्थितियां तेजी से बिगड़ती जा रही है इसलिए एक ओर जहां केंद्र सरकार को दृढ़ता का परिचय देना होगा वहीं दूसरी ओर उसे उस राजनीतिक संकट के लिए भी तैयार रहना होगा जिसका संकेत वाम दल बार-बार कर रहे है। केंद्र को इस पर विचार करना चाहिए कि तर्क की भाषा समझने से इनकार कर रहे वाम दल किस तरह सही रास्ते पर आ सकते है?
sabhar- http://aayushman.org/

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